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पसीना आता, धूप खलती। तो तुम पाते हो कि अरे, अभी तक महात्मा तो बने नहीं; कांटों की शैय्या पर तो सो नहीं सकते अभी तक – तो फिर कैसी मुक्ति ?
तुम मुक्ति का अर्थ ही न समझे। मुक्ति का अर्थ है : तुम जैसे हो परिपूर्ण हो, इस भाव का उदय । भूख तो लगती ही रहेगी लेकिन अब तुम्हें न लगेगी, शरीर को ही लगेगी, बस इतना फर्क होगा। फर्क भीतरी होगा। बाहर से किसी को पता भी न चलेगा, कानों-कान खबर न होगी। जिस मुक्ति की बाहर से खबर होती है, समझना कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई; अहंकार फिर प्रदर्शन कर रहा है, फिर शोरगुल मचा रहा है कि देखो, मैं महात्मा हो गया ! मुक्ति की तो कानों-कान खबर नहीं पड़ती। मुक्ति तो तुम्हारी साधारणता को अछूता छोड़ देती है ।
अब तुम्हारी घबराहटें अजीब हैं! एक सज्जन आये, वे कहने लगे कि संन्यास तो ले लिया लेकिन चाय अब तक नहीं छूटी। यहां हम चाह को छोड़ने की बात कर रहे हैं, वे चाय छोड़ने की बात कर रहे हैं। दरिद्रता की कोई हद है ! और चाय छोड़ भी दी तो क्या पा लोगे? चाय ही छूटेगी न ! तुम पा क्या लोगे? लेकिन तुम्हें मूढ़ों ने समझाया है कि चाय छोड़ने से मोक्ष मिल जाता। काश! मोक्ष इतना सस्ता होता कि चाय छोड़ने से मिल जाता, कि तुम धूम्रपान न करते और मोक्ष मिल जाता ! कितने तो लोग हैं धूम्रपान नहीं करते हैं, मोक्ष पा लिया ? तुम भी उन जैसे ही हो जाओगे, नहीं करोगे तो । मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धूम्रपान करना। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि धूम्रपान करने से मोक्ष मिलता है। मैं इतना ही कह रहा हूं, धूम्रपान करने और न करने से मोक्ष का कोई संबंध नहीं । करो, तुम्हारी मर्जी; न करो, तुम्हारी मर्जी । ये असंगत बातें हैं। चाय पीते हो कि नहीं पीते, इससे कुछ संबंध नहीं है। चाय पीते हो कि कॉफी पीते हो, इससे कुछ संबंध नहीं है। मोक्ष तो जागरण है। पहले तुम चाय पीते थे, सोये-सोये पीते थे; अब तुम जाग कर पीओगे। और अगर जागरण में चाय छूट जाये अनायास, छोड़नी न पड़े, तुम्हें अचानक लगे कि बात खतम हो गई, रस न रहा अब, तो गई, तो छोड़ने का भाव भी पैदा नहीं होगा कि मैंने कुछ त्याग कर दिया।
क्षुद्र को त्याग कर क्षुद्र त्यागी ही तो बनोगे न, महाशय कैसे बनोगे ? क्षुद्र आशय हैं तुम्हारे । कोई धूम्रपान छोड़ना चाहता, कोई चाय छोड़ना चाहता, कोई कुछ छोड़ना चाहता । तुम्हारे आशय क्षुद्र हैं। नको तुम छोड़ भी दो तो तुम क्षुद्र रहोगे । फिर तुम सड़क पर अकड़ कर चलोगे कि अब कोई आये और चरण छुए; क्योंकि महात्मा ने चाय छोड़ दी ।
तुम जरा अपनी क्षुद्रता का हिसाब तो समझो ! पूछते हो कि जीवन आमूल रूप से परिवर्तित क्यों नहीं होता है ? जीवन में खराबी क्या है जो परिवर्तित हो ? मैंने तो कुछ खराबी नहीं देखी। भूख लगनी चाहिए। भूख न लगे तो बीमार हो तुम। भूख लगनी स्वाभाविक है। प्यास लगनी चाहिए। प्यास न लगे तो बीमार हो तुम । सोओगे भी। और स्वभावतः जो कांटों का बिस्तर बना कर सो रहा है, वह पागल है, विक्षिप्त है। यह देह तुम्हारी है, तुम्हारा मंदिर है; इसे कांटों पर सुला रहे हो ?
और जो अपनी देह के प्रति कठोर है, वह दूसरों की देहों के प्रति भी सदय नहीं हो सकता, असंभव। जो अपने के प्रति सदय न सका, वह दूसरे के प्रति कैसे सदय होगा ? तुम हिंसक हो । तुम दुष्ट प्रकृति के हो। तुम कांटे बिछा कर लेट रहे हो। अब तुम्हारी मर्जी होगी कि सारी दुनिया कांटों पर लेटे । अगर सारी दुनिया न लेटे कांटों पर तो तुम हजार तरह के उपाय करोगे, उपदेश करोगे,
संन्यास - सहज होने की प्रक्रिया
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