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___ इसलिए मैं संन्यास के बाद यह नहीं तुमसे कहता कि तुम विशिष्ट होने की चेष्टा करो। मैं तुमसे कहता हूं : तुम जैसे हो वैसे ही रहो; जैसे साधारण जन हैं, वैसे ही रहो। अंतर आना है भीतर। घटना घटनी है भीतर। तुम भीतर साक्षी हो जाओ, क्रांति हो जायेगी। तुम वही करो जो तुम कल तक करते थे; बस अब साक्षी का सूत्र जोड़ दो।।
संन्यास किसी चीज का त्याग नहीं, बल्कि किसी नई भाव-दशा का ग्रहण है। संन्यास किसी चीज को तोड़ नहीं देना है, बल्कि तुम्हारे जीवन में एक नये साक्षी-भाव को जोड़ लेना है। ऋण नहीं है संन्यास, धन है।
'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप को और न दूषण, बंधनलिप्त होने को ही देखता है।'
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्। न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।।।
ऐसा पुरुष न तो दावा करता कि मैं समाधिस्थ हूं, न दावा करता है कि मैं अलिप्त हूं, न दावा करता कि मैं वीतराग हूं-दावा ही नहीं करता। लेकिन तुम अगर उसके पास जाओगे तो तुम अनुभव करोगे। उसकी तरंग-तरंग में दावा है; उसमें कोई दावा नहीं है। उसकी मौजूदगी में दावा है। तुम उसके पास अनुभव करोगे कुछ हुआ है, कुछ अपूर्व घटा है, कुछ अद्वितीय घटा है; कुछ ऐसा घटा है जो घटता नहीं है साधारणतः। और फिर भी तुम चकित होओगे कि वह तुम्हारे जैसा ही व्यवहार करता है।
कबीर ज्ञान को उपलब्ध हो गये तो उनके भक्तों ने कहा कि अब आप ये कपड़े बनना बंद कर दें; यह शोभा नहीं देता। कबीर तो जुलाहे थे। अब यह बैठे-बैठे दिन भर कपड़े बुनना, फिर बाजार में कपड़े बेचने जाना—और आप तो इतने बड़े महात्मा हैं, आपके इतने शिष्य हैं, यह आप बंद कर दें! लेकिन कबीर ने कहा कि नहीं; जो था जैसा था वैसा ही रहने दो। और फिर बहुत रूपों में राम आते हैं बाजार में कपड़े खरीदने और मैं कपड़ा न बनाऊंगा उनके लिए, तो इतने ढंग से कोई कपड़े उनके लिए बनायेगा नहीं। देखते मैं कितने जतन से बुनता हूं! इतने जतन से कोई बुनेगा नहीं। नहीं, काम जारी रहेगा। __ तो कबीर जुलाहे ही बने रहे; मरते दम तक कपड़ा बुनते रहे और बेचते रहे। यह परम ज्ञानी की अवस्था है। अगर जरा भी अहंकार होता तो यह मौका छोड़ने जैसा नहीं था।
गोरा कुम्हार ज्ञान को उपलब्ध हो गया लेकिन घड़े तो बनाता ही रहा और घड़े तो बेचता ही रहा। कहते हैं किसी ने उससे कहा भी कि यह भी क्या धंधा कर रहे हो कुम्हार का!
तो उसने कहा, मैंने तो सुना है कि परमात्मा भी कुम्हार है, उसने संसार को बनाया। जब उसे भी शर्म न आई तो मुझे क्या शर्म! हम छोटे-छोटे घड़े बनाते हैं, उसने बड़े-बड़े घड़े बनाये। अब निश्चित ही वह बड़ा है, हम छोटे हैं।
मगर जो चलता था वह चलता रहा।
सेना नाई लोगों के बाल ही काटता रहा। भक्त उससे कहते कि बंद करो। कोई भक्त बाल बनवाने आया था, वह कहता हमें संकोच लगता है कि आप जैसे महात्मा से हम बाल बनवायें! तो सेना ने कहा, तुम बाल बनवा लो! घोंटते-घोंटते सिर भी घोंट देंगे, सफा कर देंगे सब। सफाई ही करना है
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4