Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 376
________________ ____ मैंने सुना है, एक प्रोफेसर हैं पोपट लाल। दादर के एक प्राइवेट सिंधी कालेज में प्रोफेसर हैं। एक तो प्राइवेट कालेज-और फिर सिंधियों का! तो प्रोफेसर की जो गति हो गई वह समझ सकते हो। असमय में मरने की तैयारी है। समय के पहले आंखों पर बड़ा मोटा चश्मा चढ़ गया है, कमर झुक गई है। पिता तो चल बसे हैं; बूढ़ी मां, वह पीछे पड़ी थी कि विवाह करो, विवाह करो पोपट! पोपट ने बहुत समझाया, बहुत तरह के बहाने खोजे। कहा कि मैं तो विवेकानंद का भक्त हूं और मैं तो ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता हूं। लेकिन मां कहीं इस तरह की बातें सुनती है! मां ने समझाया कि संसार-चक्र कैसे चलेगा? ऐसे में तो संसार-चक्र बंद हो जायेगा। फिर मां पर दया करके पोपट लाल विवाह को राजी हुए। बंबई में तो कोई लड़की उनसे विवाह करने को राजी थी नहीं। सच तो यह है कि जब से वे प्रोफेसर हुए, जिस विभाग में प्रोफेसर हुए उसमें लड़कियों ने भर्ती होना बंद कर दिया। तो कोई गांव की, देहात की लड़की खोजी गई। वह विवाह करके आ भी गई। प्रोफेसर तो सुबह ही से निकल जाते दूर, उपनगर में रहते हैं, सुबह से ही निकल जाते हैं। दिन भर पढ़ाना। प्राइवेट कालेज और सिंधियों का! फिर प्रिंसिपल की भी सेवा करनी, प्रिंसिपल की पत्नी को भी सिनेमा दिखाना, बच्चों को चौपाटी घुमानासब तरह के काम। रात कटे-पिटे लौटते. तो सो जाते। बूढ़ी को बहू पर दया आने लगी। एक दिन बंबई भी नहीं दिखाया ले जा कर, तो एक दिन वह बंबई दिखाने ले गई। जैसे ही बस पर पहुंचे स्टेशन पर, तो वहां कोई किसी सांड को पकड़ का बधिया बनाते थे। तो उस बहू ने बूढ़ी से पूछा कि इस सांड को यह क्या कर रहे हैं? बूढ़ी शर्माई भी, किन शब्दों में कहे! लेकिन बहू न मानी तो उसे कहना पड़ा कि ये इसे खस्सी करते हैं। तो उसने कहा, इतनी मेहनत क्यों करते हैं-दादर के सिंधी कालेज में प्रोफेसर ही बना दिया होता! __ जो मन में छिपा हो वह कहीं न कहीं से निकलता है। तुम्हारे दबाये-दबाये नहीं दबता-नई-नई शक्लों में प्रगट हो जाता है। कहीं से तो निकलेगा। तुम संसार-चक्र के बंद होने से घबड़ाये हुए हो! परमात्मा ने तुमसे पूछ कर संसार-चक्र चलाया था? और अगर बंद करना चाहेगा तो तुमसे सलाह लेगा? तुम्हारी सलाह चलती है कुछ ? अपने पर ही नहीं चलती, दूसरे पर क्या चलेगी? और सर्व पर तो चलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन तुम ऐसी चिंतायें लेते हो। ऐसी बड़ी चिंताओं में तुम छोटी चिंताओं को छिपा लेते हो। असली चिंता भूल जाती है। और इस भांति तुम एक पर्दा डाल लेते हो अपनी आंख पर और आंख नहीं खुलने देते। छोड़ो! यह रुकता हो रुक जाये। यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम किसी चिकित्सक के पास जाओ और उससे कहो कि दवाइयां खोजना बंद करो, अगर ऐसी दवाइयों को खोजते रहे तो फिर बीमारियों का क्या होगा, बीमारियों का चक्र बंद ही हो जायेगा! संसार-चक्र—जिसे तुम कहते हो-सिवाय बीमारियों के और क्या है ? सिवाय दुख और पीड़ा के क्या जाना? जीवन में घाव ही घाव तो हो गये हैं, कहीं फूल खिले? मवाद ही मवाद है! कहीं कोई संगीत पैदा हुआ? दुर्गंध ही दुर्गंध है। कहीं तो कोई सुगंध नहीं। फिर भी संसार-चक्र बंद न हो जाये, इसकी चिंता है। गटर में पड़े हो; लेकिन कहीं गटर की गंदगी समाप्त न हो जाये, इसकी चिंता है। 360 अष्टावक्र: महागीता भाग-4

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