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मांगते हो। कोई कहे कि फलां आदमी परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया, तुम कहते, प्रमाण? तुम्हारे कहने से न मान लेंगे। सबूत क्या है? कोई प्रत्यक्ष प्रमाण लाओ, कहने से क्या होता है?
लेकिन कोई अगर कहे कि फलां परम ज्ञानी भ्रष्ट हो गया, तो तुम प्रमाण नहीं मांगते। तुम कहते हो, हमको तो पहले से ही पता था, यह होना ही था। वह भ्रष्ट था ही। ___तुम अपने मन को जरा गौर करना। कोई अगर किसी की बुराई करे तो तुम बिना तर्क मान लेते हो। कोई किसी की भलाई करे तो तुम हजार तर्क खड़े करते हो। क्यों? क्योंकि दूसरे की भलाई का मतलब है, उसकी लकीर बड़ी हो रही है, तुम्हारी छोटी हो रही है। बुराई का अर्थ है, उसकी लकीर छोटी हो रही है, तुम्हारी बड़ी हो रही है। यह भीतर का हिसाब है।
ऐसा नहीं है कि तुम सदा निंदा में ही रस लेते हो; कभी-कभी तुम स्तुति में भी रस लेते हो। तब भी तुम खयाल रखना कि वहां भी कुछ गणित काम करता है। तुम स्तुति किसकी करते हो? जिसके साथ तुम अपना तादात्म्य कर लेते हो, उसकी स्तुति करते हो। तुम्हारा गुरु, तो तुम उसकी स्तुति करते हो। तुम कहते हो, हमारा गुरु महागुरु! दूसरे कहते हैं, गुरुघंटाल; तुम कहते हो महागुरु। तुम क्यों कहते हो महागुरु? क्योंकि महागुरु हो तो ही तुम महाशिष्य। अब तुमने उसकी लकीर के साथ अपनी लकीर जोड़ दी। उसकी जितनी लकीर बड़ी होती जाये उतनी तुम्हारी होती है; नहीं तो तुम भी गये। अब तुम तो रेल के डब्बे हो, वह इंजिन। अब वह चले तो तुम चले, नहीं तो तुम भी गये।
तो जिनके साथ तुम अपना तादात्म्य कर लेते हो, उनकी तुम प्रशंसा करते हो। तुम्हारा बेटा-तुम कहते हो: 'अरे लाखों में एका' और ये सब लाखों में एक बेटे कहां खो जाते हैं. पता नहीं चलता। हरेक अपने बेटे की तारीफ कर रहा है। क्योंकि लाखों में एक बेटा तभी होता है जब करोडों में एक बाप हो। क्योंकि फल से ही वृक्ष तो पहचाना जाता है। तो जब बेटा सिद्ध नहीं होता लाखों में एक, तो तुम्हें बड़ी पीड़ा होती है। जो बेटा तुम्हारे अहंकार को बड़ा नहीं करता, तुम उसकी चर्चा नहीं करते।
मेरे एक मित्र थे, उनके दो बेटे थे। एक मिनिस्टर हो गया और एक साधारण दूकानदार। वे जब भी आते अपने मिनिस्टर बेटे की चर्चा करते। मैंने उनसे कहा कि आपका दूसरा भी बेटा है, आप उसकी कभी चर्चा नहीं करते। वे बोले : उसकी क्या चर्चा करना? मैंने कहा कि यह भी कोई बात हुई? मिनिस्टर की ही चर्चा करते हैं। मिनिस्टर से उनको बड़ी आशाएं थीं। वे सोचते थे कि उनका बेटा जो मिनिस्टर है, वह कभी न कभी प्राइम मिनिस्टर होने वाला है; वह पंडित जवाहरलाल नेहरू की जगह लेने वाला है। उनकी कल्पना में...। और वे मोतीलाल थे। वह उनके दिमाग में बैठा था। अब वे दूकानदार की तो बात ही नहीं करते, क्योंकि दूकानदार...। अब किराने की दूकान कोई चलाये, उस बेटे के बाप होने में सार ही क्या है!
फिर उनका जो बेटा मिनिस्टर था और जवाहरलाल होने वाला था मर गया बीच में। वह मरा मिनिस्ट्री की वजह से। चिंता-भार...विक्षिप्त हो गया। फिर विक्षिप्तता में प्राण भी चले गये। तो वे बहुत-बहुत रोये। आत्महत्या करने को उतारू हो गये। मैंने उनसे पूछा कि अगर तुम्हारा दूसरा बेटा मर जाता तो तुम इस तरह के उपद्रव करते? तो वे रो रहे थे; आंखों से उनके आंसू रुक गये। उन्होंने कहाः आप हमेशा दूसरे बेटे की बात क्यों उठाते हैं? मैंने कहा कि मैं इसलिए उठाता हूं कि मुझे पता तो चले कि यह बाप का हृदय है या सिर्फ अहंकार ही काम कर रहा है।
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शून्य की वीणा : विराट के स्वर
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