Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 386
________________ वह क्या सोचे ! वह क्या करे ! वह तो यह भी नहीं कह सकता : अहं ब्रह्मास्मि ! क्योंकि अहं और ब्रह्म का कोई भेद ही नहीं बचा है। उपनिषद का महावाक्य है : अहं ब्रह्मास्मि ! मैं ब्रह्म हूं ! अष्टावक्र कहते हैं: मैं कौन, ब्रह्म कौन! अभी तो दो बचे हैं। अभी तुम दो के बीच संबंध जोड़ रहे हो, मगर दो मिटे नहीं; अभी दूसरा दिखाई पड़ता है। प्रसिद्ध झेन फकीर रिंझाई का एक शिष्य उसके पास आया और उसने कहा कि ध्यान फल गया है, फूल लग गये हैं, मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं। रिंझाई कुछ काम कर रहा था, कुछ चित्र बना रहा था। उसने आंख भी न उठाई। शिष्य बड़ा दुखी हुआ— इतनी बड़ी घटना की खबर ले कर आया कि मैं शून्य को उपलब्ध हो गया हूं और यह एक गुरु है, यह अपना चित्र बना रहा है, आंख भी नहीं उठाई। उसने फिर कहा : आपने सुना नहीं, मैं समाधि को उपलब्ध हो कर आया हूं ! रिझाई ने वैसे ही चित्र बनाते कहा कि समाधि इत्यादि फेंक कर आ, शून्य इत्यादि बाहर फेंक कर आ, भीतर मत ला । क्योंकि जब तक तुझे लगता है कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं तब तक तू मौजूद है, फिर कैसा शून्य ! शून्य को जो उपलब्ध हुआ वह यह कह ही नहीं सकता कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं। कैसे कहोगे ! कौन कहेगा ! शून्य और मैं दो तो नहीं, एक ही हो गये । तो रिझाई ठीक कह रहा है कि इसे भी तू बाहर फेंक कर आ । वर्षों बीत गये, पहले ध्यान करने में वर्षों बीते थे, फिर ध्यान को फेंकने में वर्षों बीते। हमारा मन ऐसा है कि हम जो पकड़ लें सो पकड़ लेते हैं; पहले संसार पकड़ लेते हैं, फिर त्याग पकड़ लेते हैं। संन्यास पकड़ लेते हैं। शून्य तक को पकड़ लेते हैं। हमें पकड़ने की ऐसी आदत है कि शून्य पर भी मुट्ठी बांधने की कोशिश करते हैं। वर्षों बीत गये, तब शिष्य एक दिन वापिस आया। रिंझाई खड़ा हो गया। तो उसने कहा: अच्छा, तो अब बात हो गई! शिष्य ने कुछ कहा भी नहीं था, लेकिन रिझाई खड़ा हो गया। उसने शिष्य को गले लगा लिया। उसने कहा : 'तो बात हो गई!' पर शिष्य ने कहा: आज तो मैंने कुछ निवेदन भी नहीं किया है। रिंझाई ने कहा : इसीलिए, इसीलिए! निवेदन तो किया नहीं जा सकता। आज तू शून्य हो कर आया है, निवेदन करने वाला मौजूद नहीं है। 'मैं ब्रह्म हूं' – तो थोड़ा-सा भेद शेष है। सुनो इस वचन को 'जिसने परमब्रह्म को देखा है वह भला 'मैं ब्रह्म हूं' का चिंतन भी करे, लेकिन जो निश्चित हो कर दूसरा नहीं देखता है वह क्या चिंतन करे !' किं चिंतयति निश्चितो द्वितीयं यो न पश्यति । यह परम ज्ञान की अवस्था है। यह ज्ञान के भी पार परमज्ञान की अवस्था है। शायद इसीलिए बुद्ध और महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। हिंदुओं ने समझा नास्तिक हैं, कि बुद्ध परमात्मा की बात नहीं करते, महावीर भी परमात्मा की बात नहीं करते। लेकिन मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: यह परम अवस्था है जहां परमात्मा की बात की नहीं जा सकती। परमात्मा की बात करने के लिए भी थोड़ा नीचे उतरना पड़ता है। तो बुद्ध ने तो आत्मा तक की बात नहीं की, क्योंकि ये तो अनुभव हैं, इनकी बातें नहीं हो सकती हैं। इनके विचार... इनको विचार में नहीं बांधा जा सकता। ये तो चिंतन के पार की प्रतीतियां हैं। चिंतन में इनकी छाया भी नहीं बनती। और जो भी चिंतन में बनता है वह विकृत हो 370 अष्टावक्र: महागीता भाग-4

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