Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 424
________________ है। तुम्हारा यह खयाल ही कि मेरा प्रयास मुझे पहुंचायेगा, तुम्हें प्रभु के प्रसाद से वंचित किए है। तुम हलके हो लो। तुम रखो, उतार दो सब बोझ। तुम कह दोः 'तू चल मेरे भीतर। तू गा मेरे भीतर। तू बोल मेरे भीतर। या तुझे चुप होना हो तो चुप रह मेरे भीतर। अब मैं न चलूंगा, तू चल। तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाये। और निश्चित ही तुम्हारे रखते ही, वीणा में स्वर उठने शुरू होते हैं। अनूठे स्वर! अज्ञात के स्वर! ऐसे—जो कभी नहीं सुने गये! ऐसे-जो किन्हीं मर्त्य अंगुलियों से पैदा नहीं होते! लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहना चाहता हूं: कोई प्रभु आ कर बजाता नहीं है, तुम ही बजाते हो। लेकिन जैसे ही तुम अपने को छोड़ देते हो, तुम प्रभु हो जाते हो। तुम्हारी सीमा उसी क्षण मिट जाती है जिस क्षण तुमने कहा, अब मैं नहीं, तू! बस तुम्हारे भीतर वही बहने लगा। वही पहले भी बह रहा था, लेकिन तुम्हारी तू-तू के कारण शोरगुल मचता था; तुम्हारी मैं-मैं तू-तू के कारण उपद्रव होता था। अब तुमने सब हटा कर रख दिया। तत्क्षण उसकी धार बहने लगती है। सहज हो जाओ और निर्भार। 'अब रखना चाहता हूं आपकी वीणा आपके ही चरणों में, आप ही बजायें!' बजेगी वीणा। तुम अगर रख दो तो तुम्हारे कारण जो बाधा पड़ती थी, न पड़ेगी अब। बस बाधा न पड़ी, सब होने लगेगा। धार बहेगी, सागर में उतरेगी। सीमा चलेगी, असीम से मिलेगी। तुम्हारे कारण, तुम्हारी चेष्टा के कारण अड़चन पैदा हो रही है। तुम्हारी सब चेष्टायें धार के विपरीत ले जाती हैं। चेष्टा का मतलब ही होता है : नदी के विपरीत बहना। निश्चेष्टा का अर्थ होता है : नदी के साथ बहना। मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर के बाहर बैठा था और लोग दौड़े आये, उन्होंने कहा कि सुनो, तुम्हारी पत्नी नदी में गिर गई और पूर आया है। तो मुल्ला भागा। एकदम नदी में कूद पड़ा। और बड़े तेजी से उल्टी धार की तरफ हाथ-पैर मार कर तैरने लगा। लोग घाट से चिल्लाये कि नसरुद्दीन, यह क्या कर रहे हो? तुम्हारी पत्नी बह गई और तुम ऊपर की तरफ जा रहे हो! उसने कहाः तुम चुप रहो। तीस साल से उसके साथ रहता हूं; अगर सब स्त्रियां नीचे की तरफ जाती हैं तो वह ऊपर की तरफ गई होगी। उसे मैं तुमसे भलीभांति जानता हूं। तुम क्या खाक मुझे समझा रहे हो। मेरी पत्नी और धार के साथ बह जाये, कभी हो नहीं सकता। वह ऊपर की तरफ गई होगी। अगर तुम लोगों को देखो तो तुम उनको पाओगेः सब अहंकार धार के विपरीत बहने की चेष्टायें कर रहे हैं। जो नहीं होता, वह हो जाये! जो नहीं हुआ है, हो जाये! किसी तरह परमात्मा की धार मोड़ दें हम! हम मालिक होना चाहते हैं अस्तित्व के। बस वहीं सारी अड़चन है। वीणा वही खंडित हो जाती है, तार टूट जाते हैं! तुम नदी के साथ बहो। नदी तो जा रही है महासागर की तरफ, तुम क्यों व्यर्थ शोरगुल मचाते हो? रामकृष्ण ने कहा है : पतवारें बंद करो, पाल खोलो! प्रभु की हवायें तो बह-ही रही हैं, वे तुम्हें ले जाएंगी। 408 अष्टावक्र: महागीता भाग-4

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