________________
किसी तरह किया गया संतोष पहले तो संतोष ही नहीं। किसी तरह किया गया संतोष, संतोष का धोखा
समझा लिया, बुझा लिया मन को, कह दिया कि क्या रखा है संसार में ! जब तुम समझाते हो मन को कि क्या रखा है संसार में, तो एक बात पक्की है कि तुम्हारा मन अभी कहता है कि कुछ रखा है संसार में, अन्यथा समझाते किसे ? समझाते किसलिए ? समझाना सूचक है कि मन अभी कहता है : रखा है बहुत कुछ संसार में।
अपने को समझाते हो : 'क्या रखा कामिनी-कांचन में? कुछ भी नहीं है, सब मिट्टी है !' मगर यह क्यों दोहराते हो? यह तुम्हारा बोध है? ऐसा तुमने देख लिया? ऐसी तुम्हारी दृष्टि का अनुभव हो गया? ऐसी तुम्हारी प्रतीति हो गई? तो अब क्या दोहराना कामिनी- कांचन ! बात खत्म हो गई।
सुबह जाग कर तुम ऐसा थोड़े ही बार-बार दोहराते हो कि जो सपना देखा है, झूठ है; जो सपना देखा है, झूठ है । और ऐसा तुम दोहराओ तो स्वभावतः शक होगा कि तुम्हें सपने पर बहुत भरोसा आ गया। अभी तक, अभी तक तुम कहे चले जा रहे हो कि सपना झूठ है ! अभी तक सच होने की लकीर तुम्हारे भीतर मौजूद है। अभी तक तुम्हारे भीतर सपने पर भरोसा है । उस भरोसे को काटने के लिए तुम कह रहे हो सपना झूठ है I
हम उन्हीं बातों को समझाते हैं जिनके विपरीत हमारी दशा होती है। तुम समझाते हो कि स्त्री के शरीर में क्या रखा है, सब मल-मूत्र है ! मगर यह क्यों समझाते हो? यह किसको कह रहे हो ? किसलिए कह रहे हो ? थोड़ा इसमें झांक कर देखो, तुम्हें जरूर स्त्री के शरीर में रूप दिखाई पड़ रहा है, सौंदर्य दिखाई पड़ रहा है। वह सौंदर्य तुम्हें बुला रहा है। वह रूप तुम्हें निमंत्रण दे रहा है। उस निमंत्रण से तुम घबड़ा गये हो, डर गये हो। उस निमंत्रण काटने के लिए तुम समझा रहे हो कि सब... जरा गौर से देखो मल-मूत्र भरा है !
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे जो ऋषि-मुनि शास्त्रों में लिख गये कि स्त्री के शरीर में मल-मूत्र भरा है, इनमें से कोई भी यह नहीं लिखता कि मेरे शरीर में भी मल-मूत्र भरा है! जैसे कि इनके पास कुछ सोने का शरीर है ! और बड़े मजे की बात है कि इनमें से कोई भी नहीं लिखता कि स्त्री
शरीर से ही पैदा हुए हैं। तो मल-मूत्र से ही पैदा हुए हैं - और गये-बीते मल-मूत्र होंगे। क्योंकि मल-मूत्र से कोई सोना नहीं आ जाता। इनमें से कोई भी नहीं लिखता कि मेरे शरीर में मल-मूत्र भरा है ! स्त्री के शरीर में मल-मूत्र भरा है !
स्त्री के शरीर में आकर्षण है, उस आकर्षण को काटने के लिए ये उपाय कर रहे ये उपाय सब झूठे हैं। इस तरह आकर्षण कटता नहीं। ऐसे तुम समझा-बुझाकर संतोष कर लो, यह संतोष बस माना हुआ है। इस संतोष से क्रांति न होगी; दीया न जलेगा; तुम रूपांतरित न हो जाओगे; तुम्हारे जीवन में प्रकाश न छा जाएगा; और न ही अमृत की वर्षा होगी।
'तृप्तः !’
देखो जीवन को गौर से ! यहां अतृप्त होने का कारण ही नहीं है। इस क्षण देखो, अभी देखो! यही अष्टावक्र का जोर है कि जो देखना है, अभी देखो, इस क्षण देखो ।
अभी तुम मेरे सामने बैठे हो। इस क्षण जरा गौर से अपने भीतर झांको: 'कहीं कोई अतृप्ति है ? कहीं कोई आकांक्षा है? कहीं कोई और होने का मन है ? कुछ और होने का मन है ?' अगर शांत हो
सहज ज्ञान का फल है तृप्ति
89