Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 408
________________ प्रभु-मंदिर यह देह री।। अतिथि पधारो, भाग्य संवारो क्षण भर को कंचन छवि पाये चरण बिछी यह खेह री! प्रभु-मंदिर यह देह री! यह देह जब प्रभु-मंदिर बन जाती और यह संसार जब परमात्मा का ही विस्तार हो जाता है और पदार्थ में भी जब परमात्मा की झलक दिखाई पडने लगती है. तब जीवन-मक्त। या अगर तम विरोधाभास में कहना चाहो, क्योंकि विरोधाभास धर्म की भाषा है : जहां कारागृह ही घर हो जाता है और जहां बंधन ही आभूषण मालूम होने लगते हैं, वहीं जीवन-मुक्त फलित होता है। जीवन-मुक्त जैसा है, जहां है, उससे रत्ती भर अन्यथा होने की आकांक्षा नहीं है। सब असंतोष गया। एक महातृप्ति उदित हुई। सब भांति परितुष्ट। ___जीवन-मुक्त को जगत परिपूर्ण है; जैसा होना चाहिए ठीक वैसा है। इससे श्रेष्ठतर हो नहीं सकता। उसकी शिकायत नहीं है। और अगर ऐसा संगम सध जाये तो मौत फिर तुम्हें नष्ट न कर पायेगी। क्योंकि यह मौत से ऊपर कुछ तुमने पा लिया जिसको मौत नहीं मिटा सकती। फिर मौत की लपटें तुम्हें जला न पायेंगी। अगर तुम्हारे भीतर अंधे और लंगड़े का मिलन हो गया; अगर तुम्हारे भीतर देह और आत्मा का मिलन हो गया, संसार और मोक्ष का मिलन हो गया; अगर तुम्हारे भीतर साधारण और असाधारण का मिलन हो गया; अगर तुम्हारे भीतर बाहर और भीतर का मिलन हो गया; कोई भेद न रहा बाहर और भीतर में, बाहर भीतर हो गया, भीतर बाहर हो गया, सब संयुक्त हो गया-ऐसी संयुक्त घटना अगर तुम्हारे भीतर घट गई तो फिर मृत्यु की लपटें कितनी ही जलती रहें, चिता कितनी ही धधके, तुम्हें न धधका सकेगी। तुम पार हो गये। जंगल में आग लगी रहे, चिता जलती रहे, तुम्हारा अंधा और तुम्हारा लंगड़ा, तुम्हारे खंड अखंड हो गये। जुड़ गये। इस जोड़ का नाम योग है। इस जोड़ की स्थिति को ही हम योगी की दशा कहते हैं। यह समझना कठिन मालूम होता। संसार में तुम जीते हो, भोगी तुम हो, भोग का कष्ट तुमने देखा है। और तुम्हारे आस-पास महात्मा हैं जो तुम्हें समझा रहे हैं कि छोड़ दो यह सब, भाग जाओ इस सब से। उनकी बात भी जंचती है, क्योंकि तुमने दुख तो पाया है, सच कहते हैं। और ऐसा लगता है कि अब इस दुख से छूटने का और कोई उपाय नहीं, छोड़ कर भाग जाओ।। लेकिन तुम कभी इन साधु-महात्माओं की आंख में झांको तो, थोड़े इनका हाथ हाथ में ले कर देखो-तो इनके भीतर जीवन बचा है या सिर्फ खंडहर हैं? इनकी आंख में झांको, कोई गहराई है? इनके पास बैठो, इनके पास कोई प्रेम की वर्षा है? अमृतधार बहती है? नहीं, तुम्हारी धारणायें तुम अगर बना कर बैठ गये हो तो बात अलग है। तुम्हारी धारणा है कि महात्मा होने का अर्थ कि जो दिन में एक बार भोजन करे। तो फिर ठीक है, यह आदमी दिन में एक बार भोजन करता है-महात्मा होना चाहिए। तमने महात्मा की बडी सस्ती व्याख्या कर ली है। यही आदमी मुसलमान को महात्मा न मालूम पड़ेगा, जैन को महात्मा मालूम पड़ता है। मुसलमान का फकीर मुसलमान को महात्मा मालूम पड़ता है, जैन को बिलकुल महात्मा नहीं मालूम पड़ता। अब यह 392 अष्टावक्र: महागीता भाग-4

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