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रखती है? इतना ही अर्थ रखती है कि मेरा अहंकार दूसरे की मान्यता पर निर्भर होता है। अहंकार दूसरे का सहारा चाहता है। तुम अकेले में ज्ञानी नहीं हो सकते। कोई कहे तो ही ज्ञानी हो सकते हो। जंगल में बैठ जाओ अकेले तो तुम ज्ञानी कि अज्ञानी? पशु-पक्षी तो कुछ कहेंगे नहीं कि महाराज, ज्ञान उपलब्ध हुआ कि नहीं? अभी ब्रह्म का पता चला कि नहीं? वे फिक्र ही न करेंगे। दूसरा मनुष्य चाहिए जो कहे कि ज्ञानी; कि अज्ञानी? अगर कोई अज्ञानी कहे तो स्वीकार कर लेना कि ठीक कहते हैं, यही तो मेरी दशा है। कुछ भी तो मुझे पता नहीं है। अगर कोई ज्ञानी कहे तो उससे कहना कि तुम्हें कुछ भूल हो रही होगी, क्योंकि मुझे कुछ पता नहीं है।
उपनिषद कहते हैं : जो कहे मैं जानता, जान लेना कि नहीं जानता। सुकरात ने कहा है : जानकर मैंने एक ही बात जानी कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
बनो सुकरात! सीखो एक रहस्य कि दूसरों की मान्यताओं पर ठहरने की कोई भी जरूरत नहीं है। और जिस दिन तुमने दूसरों की मान्यताओं की चिंता छोड़ दी उसी दिन तुम समाज से मुक्त हो गये। समाज से भाग कर थोड़े ही कोई मुक्त होता है! वह जो समाज से भाग जाता है वह भी जंगल में बैठ कर सोचता है कि समाज उसके संबंध में क्या सोच रहा है। राहगीर आते-जाते हैं तो उनसे भी वह घूम-फिर कर बात निकलवा लेता है कि गांव में क्या इरादा है? लोग क्या कह रहे हैं? पता चल गया कि नहीं कि मैं बिलकुल ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं? कुछ गांव में सनसनी फैली कि नहीं, क्योंकि मैंने तो सना था जब ज्ञान को कोई उपलब्ध हो जाता है तो जंगल में भी बैठा रहे तो वहां भ लोग चले आते हैं, खोजते। सत्य के खोजी कब तक आयेंगे. कछ बताओ तो। .. वहां बैठा-बैठा भी भीतर तो रस समाज में ही लेता रहता है। वहां भी खबर लगाता रहता है कि कोई राष्ट्रपति ने इस वर्ष पद्मश्री या भारतरत्न की उपाधि की घोषणा मेरे लिए तो नहीं की। क्योंकि यहां मैं महर्षि हुआ बैठा हूं और अभी तक कुछ खबर नहीं आयी।
वहां भी बैठे-बैठे अचेतन मन यही गुनतारा बिठाता रहता है।
नहीं, यह कोई समाज से जाना न हुआ। और अगर कोई आदमी आ कर तुमसे कह दे कि अरे, तुम क्या नाहक बैठे हो, वहां तुम्हारी बड़ी बदनामी हो रही है। तो तुम बड़े दुखी हो जाओगे कि हम यहां अकेले भी बैठे हैं, और बदनामी हो रही है! हमने सब छोड़ दिया, और बदनामी हो रही है! हम यहां ध्यान कर रहे हैं, अब तो कुछ हम किसी का बिगाड़-बना भी नहीं रहे हैं, और बदनामी हो रही है! तो तुम्हारा दिल होगा कि दुर्वासा बन जाओ और दे दो अभिशाप इस सारे समाज को कि सब नर्क में पढ़ें।
समाज की मान्यता से जो चिंता नहीं लेता; समाज अच्छा सोचता है कि बुरा सोचता, वह फिक्र ही नहीं करता। वह कहता है : तुम्हारी मर्जी। यह तुम्हारा मजा। अच्छा सोचो तो, बुरा सोचो तो। जिसमें तुम्हें मजा आये वैसा सोचो। जो समाज की मान्यता पर जरा भी ध्यान नहीं देता—ऐसा व्यक्ति समाज से मुक्त है। फिर जंगल जाने की कोई जरूरत नहीं है, बीच बाजार में बैठे रहो, समाज तुम्हें छुएगा नहीं : तुम कमलवत हो गये। ___ तो मैं तुमसे कहूंगा : प्रतीक्षा करो। थोड़ा और कसे जाओगे। थोड़ा और कसे जाने की जरूरत है।
और कसो तार, तार-सप्तक मैं गाऊं। ऐसी ठोकर दो मिजराब की अदा से
साक्षी, ताओ और तथाता
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