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हूं। इस गांठ को जाने दो। इस गांठ के विसर्जन पर तुम अचानक पाओगे: जिसे तुम खोजते थे वह तुम्हारे भीतर सदा से विराजमान था। .. खोज के कारण ही खोये बैठे थे। खोज के लिए दौड़ते थे, तो जो भीतर था, दिखाई न पड़ता था। दौड़ के कारण आंखें अंधी थीं, धुएं से भरी थीं। दौड़ के कारण दूर तो देखते थे, पास का दिखाई न पड़ता था। दौड़ के कारण बाहर तो दिखाई पड़ता था, लेकिन भीतर न दिखाई पड़ता था। भीतर के लिए तो जरा आंख बंद करके बैठना पड़े।
अष्टावक्र ने कहा है : आंख खुली रहे तो भीतर आंख बंद रहती है। आंख बंद हो जाये तो भीतर आंख खुल जाती है। ये बाहर की पलकें परदा बन जायें, तुम्हारी आंख बाहर से थोड़ी देर के लिए बंद हो जाये, तो भीतर जिसे तुम तलाशते हो, जिसकी प्यास है, वह मौजूद है। सरोवर दूर नहीं है।
कबीर ने कहा है : मुझे बड़ी हंसी आती है, मछली सागर में प्यासी! जिन्होंने भी जाना है वे हंसे हैं। तुम पर ही नहीं, अपने पर भी हंसे हैं; अपने अतीत पर हंसे हैं। क्योंकि अतीत में यही भूल उनसे भी हुई। कबीर की मछली भी पहले प्यासी रही है। आज हंसी आती है। जान कर हंसी आती है कि मैं कैसा पागल था, सागर में था और प्यासा था! सागर में था और सागर को खोजता था!
लेकिन इसके पीछे कुछ कारण भी है। मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में बड़ी होती है; सागर से दूर जाने का कभी मौका नहीं मिलता, तो पता ही नहीं चलता कि सागर क्या है। फिर मछली तो कभी-कभी सागर से दूर भी चली जाती है। मछुए हैं, किनारे पर बैठे जाल फेंकते हैं; मछली को कभी खींच भी लेते हैं। कभी मछली भी छलांग मार कर रेत पर गिर जाती है, तट पर गिर जाती है, तड़पती है और अनुभव कर लेती है कि सागर कहां है, तृप्ति कहां है। वापिस सरक आती है, लौट कर गिर जाती है सागर में। लेकिन परमात्मा के बाहर तो कोई किनारा नहीं है। और परमात्मा के किनारे पर बैठे कोई मछुए नहीं हैं। परमात्मा के बाहर कुछ भी नहीं है। इसलिए तुम्हारी मछली परमात्मा के बाहर तो गिर नहीं सकती। गिर जाये तो पता चल जाये। गिर जाये तो पता चल जाये कि कैसी हंसी की स्थिति है! कैसी हास्यजनक है कि जिससे हम घिरे थे, उसको खोजते थे। लेकिन बाहर तुम जा नहीं सकते। तो भीतर रह कर ही जानना पडेगा। ___इसलिए तो इतनी देर लग जाती है, जन्म-जन्म की देर लग जाती है। क्योंकि दूर को समझना आसान है, बुद्धू भी समझ लेता है; पास को समझना कठिन है, बहुत बुद्धिमान चाहिए। तुमने सुना न, दूर के ढोल सुहावने होते हैं ! जो पास है उसका पता ही नहीं चलता; उसका बोध ही मिट जाता है। उसका खयाल ही मिट जाता है। जो मिला ही है उसकी याद भी हम क्यों रखें! और जिसे हमने कभी खोया ही नहीं है उसकी याद भी कैसे आये? वह तो हमारा स्वभाव है। इसलिए इतनी देर लग जाती है। अगर परमात्मा कहीं दूर होता, गौरीशंकर पर बैठा होता, शिखर पर, तो हमने खोज लिया होता। हमारे हिलेरी और तेनसिंग वहां पहुंच गये होते। चांद पर होता, हम पहुंच जाते। नहीं, न चांद पर है, न गौरीशंकर पर है, न मंगल पर मिलेगा, न और तारों पर मिलेगा। दूर होता तो हम पहुंच ही जाते। दूर पर हमारी बड़ी पकड़ है। हम कितने उपाय करते हैं! ____ आदमी अपने भीतर जाने के इतने उपाय नहीं करता जितने चांद पर जाने के उपाय करता है। और ऐसा नहीं है कि बाद में करता है; बच्चा पैदा नहीं हुआ कि चांद की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है। चांद
साक्षी, ताओ और तथाता
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