________________
मेरे पास लोग आकर कहते हैं: आप कहते हैं, मिट जाओ; अगर मिटने पर शांति मिलेगी तो फिर सार ही क्या? उनकी बात भी मैं समझता हूं। वे कह रहे हैं यह कि हम शांत होने आये हैं; आप मिटना सिखाते हो। हम आये थे बीमारी मिटाने; आप कहते हैं मरीज को ही मिटा दो। मरीज ही मिट गया तो फिर सार क्या है?
लेकिन आध्यात्मिक जगत में बीमार ही बीमारी है। वहां बीमारी अलग नहीं है। तुम ही बीमारी हो। तो आदमी इस बात के लिए भी राजी है कि अगर दुख में भी रहना पड़े तो रहेंगे, मगर रहेंगे! इस जिद्द में तुम अटके हो। दिल की लगी तो पूरी हो सकती है, लेकिन किस दिल की बात कर रहे हो?
हाथ से छूट सड़क पर गिरा धूप का भेंट-सुदा चश्मा हमारे संबंधों की तरह किरच सब बिन जीवन हो गये स्वर्ण दिन आये क्या; लो गये समय का खलनायक जीता त्रासदी की फिल्में हो गयीं मुट्ठियों को खालीपन थाम पकेपन में स्याही बो गयीं ना लौटे सपनों के अनुमान खोजने हरियाली जो गये कांच के परदे के इस पार सांस की घटन सजीवन हई दृष्टि में आलेखों को बांध अस्मिता कांपी छुई-मुई भरे मौसम तक पहुंचे हाथ
अचानक पिघल हवा हो गये। ये तुम्हारे जो हाथ हैं, ये परमात्मा तक पहुंचते-पहुंचते पिघल कर हवा हो जाएंगे। अगर इन्हीं हाथों से तुम परमात्मा को पाना चाहते हो तो परमात्मा नहीं मिलेगा। इन हाथों से तो वस्तुएं ही मिल सकती हैं; क्योंकि ये हाथ पदार्थ के बने हैं, मिट्टी, हवा, पानी के बने हैं। मिट्टी, हवा, पानी पर इनकी पकड़ है। अगर परमात्मा को पाना है तो चैतन्य के हाथ फैलाने होंगे। कुछ और हाथ। अगर इन्हीं आंखों से परमात्मा देखना चाहते हो तो ये आंखें तो अंधी हो जाएंगी। वह रोशनी बड़ी है; पथरा जाएंगी ये आंखें। ये तो चमड़े की बनी आंखें हैं, चमड़े को ही देख सकती हैं; उससे पार नहीं। अगर परमात्मा को देखना है तो कोई और आंख खोलनी होगी-कोई और आंख, जो चमड़े से नहीं बनी हैं। अगर इन्हीं पैरों से पहुंचना है परमात्मा तक तो छोड़ो, यह मंजिल पूरी होने वाली नहीं है। ये पैर तो जमीन पर चलने को बने हैं; जमीन से बने हैं। ये जमीन के ही हिस्से हैं; जमीन से पार नहीं जाते। कोई और पैर खोजने होंगे-ध्यान के। तन के नहीं, मन के नहीं, ध्यान के।
साक्षी, ताओ और तथाता
2311
-