Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 354
________________ - मन तो मन ही है। मन तो कंप्यूटर है, यंत्र है। एकदम कैसे बदल जायेगा? तुम्हारा मन है क्या? तुम्हारे अब तक के जीवन-अनुभवों का सार है। जैसे कि तुम आत्मकथा लिख रहे हो, और तुम अपनी आत्मकथा में सब बातें लिखते जाओ और फिर तुम एक दिन संन्यास ले लो और फिर तुम किताब खोल कर देखो, तुम कहो कि मेरी आत्मकथा तो वही की वही है! तुम क्या पागलपन की बात कर रहे हो? तुम्हारे संन्यास से तुम्हारी लिखी गई आत्मकथा थोड़े ही बदल जायेगी। मन तो अतीत है; हो चुका। मन तो अतीत की धूल है। वह जो कल बीत गया, उसके चिह्न हैं। तुम्हारे संन्यास लेने से वह चिह्न थोड़े ही मिट जायेंगे; वे तो बने रहेंगे। वह तो हो चुका। जो हो चुका हो चुका; अब उसमें कुछ फर्क होने वाला नहीं है। वह तो बन गई अमिट लकीर। इतना ही होगा कि अब तुम चौंक कर जानोगे कि मैंने भ्रांति से मन के साथ अपना तादात्म्य कर लिया था। यह मन मैं नहीं हूं। यह मन मेरे पास एक यंत्र है। इसकी जब जरूरत हो, उपयोग कर लूंगा। गणित करना होगा तो मन का उपयोग करना होगा। महावीर भी मन का उपयोग किए बिना गणित नहीं हल कर सकते। अगर मैं तुमसे बोल रहा हूं तो मन का उपयोग कर रहा हूं; बिना मन का उपयोग किए तुमसे बोल नहीं सकता। क्योंकि वाणी तो मन का संग्रह है। भाषा तो मन में अंकित है। जो भी तुमसे कह रहा हूं, वह कह नहीं सकूँगा अगर मन का उपयोग न करूं। तो मन का उपयोग तो जारी है। और वही कह सकूँगा तुमसे जो मन ने अतीत में जाना है, जो मन ने अतीत में पहचाना है। मन तो संपदा है। लेकिन फर्क इतना पड़ गया कि जब मैं खाली बैठा हूं और किसी से बोल नहीं रहा हूं, तो चुप होता हूं, मन शांत होता है। ऐसे ही जैसे जब तुम कहीं नहीं जा रहे, अपनी कुर्सी पर बैठे हो, तुम्हारे पैर नहीं चलते रहते। कछ लोगों के चलते रहते हैं बैठे हैं की पर तो पैर ही हिलाते रहते हैं। इसका मतलब? इसका मतलबः या तो चलो या बैठो, दो में से कुछ एक करो। यह क्या धोबी के गधे, घर के न घाट के। यह बैठे हो कुर्सी पर, पैर क्यों हिला रहे हो? अगर चलना है तो चलो, वह भी शुभ है; बैठना है तो बैठो। मगर बीच में तो मत अटके रहो, त्रिशंकु तो न बनो। जब तुम बैठे हो, तब तुम पैर नहीं चलाते, क्योंकि तुम जानते हो कि अभी पैर का कोई उपयोग नहीं है। पैर मौजूद हैं, लेकिन तुम चलाते नहीं। कुछ उठाना है तो हाथ हिलाते हो; कुछ उठाना नहीं है तो हाथ नहीं हिलाते। जब कुछ सोचना है तो मन का उपयोग करते हो; जब कुछ सोचना नहीं तो मन का उपयोग नहीं करते। कुछ बोलना है तो मन का उपयोग करते हो। कुछ निवेदन करना है तो मन का उपयोग करते हो। जब कुछ संवाद नहीं है, कोई संबंध नहीं जोड़ना, किसी से कुछ कहना नहीं, तब मन शांत होता है। तब मन नहीं होता; बंद होता है। तुम निपट सन्नाटे में होते हो। एक गहरी प्रशांति तुम्हें घेरे होती है। तुम जागे होते हो। तुम परिपूर्ण होश में होते हो। ___ मन तो तुम्हारा वही रहेगा, सिर्फ मन के साथ तादात्म्य छूट जायेगा। अब तुम ऐसा न कहोगे कि मैं यह मन हूं और ऐसा भी न कहोगे कि मैं यह देह हूं। और तुम कहते होः 'कभी-कभी तो सामान्य सतह से भी नीचे गिर जाता है।' किसको तुम सामान्य कहते हो? तुम्हारे मन में बड़ी निंदायें भरी हैं। 'सामान्य आदमी' निंदा का शब्द है, गाली दे रहे हो तुम। तुम यह कह रहे होः 'सामान्य से भी नीचे गिर जाता है!' ये सामान्य आदमी चाय पी रहे, धूम्रपान कर रहे, सिनेमा जा रहे! अब अगर तुम सिनेमा चले गये तो तुम्हारे मन 338 अष्टावक्र: महागीता भाग-4

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