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अब साक्षी बनो। अब देखो। कर्ता नहीं-द्रष्टा। अब तो सिर्फ बैठो; जो परमात्मा दिखाये, देखो; जो कराये, कर लो—लेकिन कर्ता मत बनो। भूख लगाये तो भोजन खोज लो। प्यास लगाये तो सरोवर की तलाश कर लो। नींद लगाये तो सो जाओ। नींद तोड़ दे तो उठ आओ। मगर साक्षी रहो। सारा कर्तापन उसी पर छोड़ दो। ____ अष्टावक्र का सार-सूत्र यही है कि तुम देखने में तल्लीन हो जाओ, द्रष्टा हो जाओ। भूख लगे तो देखो। ऐसा मत कहो, मुझे भूख लगी है। कहो, परमात्मा को भूख लगी। उसी को लगती है! नींद लगे तो कहो उसको नींद आने लगी, वह मेरे भीतर झपकने लगा, अब सो जाना चाहिए, मैं बाधा न दूं। प्यास लगे, पानी पी लो। जब तृप्ति हो तो पूछ लो उससे कि 'तृप्त हुए न? तुम्हारा कंठ अब जल तो नहीं रहा प्यास से?' मगर तुम देखने वाले ही रहो। बस, इतना सध जाये तो सब सध गया। इक साधे, सब सधै। तुम हजार-हजार काम करते रहो, कुछ भी न होगा। तुम एक छोटी-सी बात साध लोः साक्षी हो जाओ। ____ मैंने सुना, एक डाक्टर के क्लीनिक में कंपाउंडर एक छोटे-से बच्चे के पैर में पट्टी बांध रहा था। पर बच्चा उछलता-कूदता था, शोरगुल मचाता था, चीखता-चिल्लाता था। अंततः डाक्टर ने गुस्से में आ कर कहा, हटो, मैं बांधता हूं। और उस लड़के से कहा, सीधे खड़े रहना बच्चू, वरना इंजेक्शनं लगा दूंगा। बीच में बच्चे ने कुछ कहना भी चाहा तो डाक्टर ने फिर कहा कि अगर जरा बोले तो इंजेक्शन लगा दूंगा बच्चू, शांत खड़े रहो। अब ऐसी हालत थी तो बच्चा बिलकुल योगासान साधे खड़ा रहा। 'ड्रेसिंग' हो जाने के बाद डाक्टर ने पूछा, बोलो बीच में क्या कह रहे थे? उसने कहा, यही कह रहा था डाक्टर साहब, कि चोट दायें पैर में है और आपने पट्टी बायें पैर में बांध दी।
कर्ता होने में चोट ही नहीं है, वहां तुम पट्टी बांध रहे हो। वह असली भ्रांति वहां नहीं है। बीमारी वहां नहीं है और पट्टी तुम वहां बांध रहे हो। बीमारी है तुम्हारी साक्षी-भाव में। तुम्हारा बोध खो गया है। तुम्हारा होश खो गया है। तुम्हारा ध्यान खंडित हो गया है। तुम्हारी जागृति धूमिल हो गयी है। प्रश्न वहां है, समस्या वहां है। तुम कहते हो, क्या करें? किया कि भटके। चले कि भटके। बैठ जाओ, करो मत! देखो और पहुंच गये।
पहुंचने का सूत्र-कहीं चल कर नहीं पहुंचना है। पहुंचे हुए तुम हो। यही तो अष्टावक्र की उदघोषणा है। यह महावाक्य है कि तुम वहीं हो जहां तुम्हें होना चाहिए। तुम जरा आंख खोलो।। ___मैं झेन फकीर रिझाई का जीवन कल रात पढ़ रहा था। किसी ने पूछा आ कर रिझाई को कि आप तो ज्ञान को उपलब्ध हो गये, आप मुझे समझायें कैसे उपलब्ध हुए और मैं क्या करूं? तो रिझाई ने कहा, 'करूं! तुम शांत हो कर मुझे देखो मैं क्या करता हूं।' और रिझाई ने झट से आंख बंद कर ली, थोड़ी देर आंख बंद किये बैठा रहा, फिर आंख खोली। और उस आदमी से कहा, समझे? उस आदमी ने कहा, 'क्या खाक समझे-तुमने जरा आंख बंद कर ली, आंख खोल ली—इसमें कुछ समझना है?' उन्होंने कहा, 'तो फिर तुम न समझ पाओगे। बस बात इतनी है-आंख खोलने और बंद करने की है। इससे ज्यादा करने को कुछ भी नहीं है। पहले मैं बंद आंख किये था, अब मैंने आंख खोल ली। इतना ही फर्क पड़ा है। जो मैं पहले था, वही मैं अब हूं। पहले सोया-सोया था, अब जागा-जागा हूं। पहले होश का दीया न जलता था, अब होश का दीया जलता है। घर वही है, सब कुछ वही है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4