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लेकिन तुम किन्हीं छोटी-छोटी क्रांतियों को करने में लगे हुए हो। तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें बड़े क्षुद्र आशय दिए हैं। उन क्षुद्र आशयों के कारण मैं तुम्हें महा सूत्र दे देता हूं कि तुम मुक्त हुए, फिर भी तुम दीन बने रहते हो, दरिद्र बने रहते हो। तुम्हें इतनी बड़ी संपदा दे देता हूं, फिर भी तुम आते हो, कहते हो कि यह नहीं छूट रहा, वह नहीं छूट रहा। तुमसे कहा किसने कि तुम छोड़ो? मैंने नहीं कहा। किसी और ने कहा होगा। तो तुम्हारे जीवन में बड़ी कीचड़ मची है, साफ-सुथरा नहीं! तुम मेरे भी संन्यासी हो, तो भी वस्तुतः मेरे नहीं हो; हजार स्वर तुम्हारे भीतर पड़े हैं। जिन बातों का मैं निरंतर खंडन कर रहा हूं वे भी तुम्हारे भीतर पड़ी हैं, और तुम्हारे भीतर अभी भी मूल्यवान हैं और महत्वपूर्ण हैं। इसलिए तुम्हारे मन में बार-बार उठने लगता है प्रश्नः अभी तक क्रांति नहीं हुई? ___तुम एक दफा इस क्रांति की लिस्ट बनाओ। क्या तुम चाहते हो क्रांति में? तब तुम बड़े हैरान होओगे कि तुम बड़ी अजीब-अजीब बातें लिस्ट में लिखने लगे। ऐसी अजीब बातें लिखने लगे जिनका
कोई मूल्य नहीं है।
___एक सज्जन मेरे पास आये। वे कहने लगेः 'इतना ध्यान करता हूं, लेकिन शरीर तो बूढ़ा होता जा रहा है। ध्यानी का तो शरीर बूढ़ा नहीं होना चाहिए।' ये आमूल क्रांतियां हैं! ध्यानी का शरीर बूढ़ा नहीं होना चाहिए! बुढ़ापे में कुछ खराबी है? जो जवान हुआ बूढ़ा होगा। ध्यानी भी बूढ़ा होगा। ध्यानी भी मरेगा। फर्क इतना ही रहेगा कि ध्यानी जब बूढ़ा होगा तब भी साक्षी रहेगा कि जो बूढ़ा हो रहा है वह मैं नहीं हूं, इतना फर्क होगा। और ध्यानी जब मरेगा तो जागता मरेगा और जानता मरेगा कि जो मर रहा है, वह मेरी देह थी, वह मैं नहीं हूं। मृत्यु तो होगी। नहीं तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मोहम्मद, क्राइस्ट, कोई मरते ही नहीं। क्योंकि ध्यानी थे, मरेंगे कैसे? ध्यानी तो अमृत को उपलब्ध हो जाता है! तो मर नहीं सकते थे। बूढ़े भी न होते।
तुम झूठी बातों में पड़े हो और तुमने व्यर्थ की बातें अपने भीतर इकट्ठी कर ली हैं। मैं लाख चेष्टा करता हूं तुम्हारी व्यर्थ की बातें छीन लूं, तुम कहीं कोने-कातर में छिपा लेते हो। ___ मैं वस्तुतः तुम्हें मुक्त कर रहा हूं। मैं तुम्हें क्रांति से भी मुक्त कर रहा हूं, परिवर्तन से भी मुक्त कर रहा है, मैं तम्हें मूलतः मक्त कर रहा है। मैं तमसे यह कह रहा है: ये सब कछ करने की बातें ही नहीं हैं; तुम जैसे हो भले हो, चंगे हो, शुभ हो, सुंदर हो। तुम इसे स्वीकार कर लो। तुम अपने जीवन की सहजता को व्यर्थ की बातों से विकृत मत करो। विक्षिप्त होने के उपाय मत करो, पागल मत बनो! ___ तुम्हारे सौ में से निन्यानबे महात्मा पागलखानों में होने चाहिए और अगर तुम पागल बनने को क्रांति कहते हो तो कम से कम मेरे पास मत आओ। मैं तुम्हें पागल बनाने में जरा भी उत्सुक नहीं हूं।
'हालत ऐसी है कि संन्यास के बाद भी वह अपनी पुरानी मनोदशा में ही जीता है।' __ और किस दशा में जीओगे? इधर तुमने संन्यास लिया, उधर तुम्हारी देह एकदम स्वर्णकाया हो जायेगी? इधर तुमने संन्यास लिया और वहां तुम्हारे पास मन एकदम बुद्ध का, महावीर का, कृष्ण का, क्राइस्ट का हो जायेगा? मन तो मन ही है। मन तो मन जैसा ही रहेगा। फर्क क्या पड़ेगा? फर्क इतना ही पड़ेगा कि अब तक मन मालिक था, अब तुम मालिक हो जाओगे। अब तक देह चलाती थी, अब तुम चलाओगे। अब तक देह खींचती थी, तुम मजबूरी में खिंचे जाते थे; अब तुम मजबूरी में न खिंचोगे, अब तुम होशपूर्वक, बोधपूर्वक जाओगे।
संन्यास-सहज होने की प्रक्रिया
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