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'लड़ जाओ जा कर दारासिंह से।' कुछ थोड़ा अभ्यास करो। नाहक हाथ-पैर तुड़वाने में कुछ सार नहीं । और सीधे दारासिंह से लड़ गये जा कर तो फिर लड़ने की बात ही छोड़ दोगे जिंदगी भर के लिए। फिर कहोगे, यह बड़ा झंझट का है, इसमें हाथ-पैर टूट जाते हैं और मुसीबत होती है। हड्डी-पसली टूट गई, फ्रैक्चर हो गया— अब यह करना ही नहीं । मन तुमसे कहता है : एकदम कर लो बड़ा ! मन बड़ा लोभी है। वह कहता है: अच्छा साक्षी में आनंद है, तो फिर चलो कामवासना से छुटकारा कर लें। वह तुमसे न होगा अभी। अभी तुम इतनी बड़ी छलांग मत भरो। अभी कोई छोटी-सी बात चुनो, बड़ी छोटी-सी बात चुनो। इतना बड़ा नहीं ।
सिगरेट पीते हो, वह चुन लो। धुआं बाहर-भीतर करते हो, साक्षी भाव से करो । बैठे, सिंगरेट निकाली - साक्षी भाव से निकालो। आमतौर से सिगरेट पीने वाला बिलकुल बेहोशी में निकालता है । तुम देखो सिगरेट निकालने वाले को, निकालेगा, डब्बी पर बजायेगा, माचिस निकालेगा, जलायेगा। जरा देखते रहो, वह सब आटोमेटिक है, वह सब यंत्रवत हो रहा है। उसे कुछ होश नहीं है । ऐसा सदा उसने किया है, इसलिए कर रहा है। इस सबको तुम होशपूर्वक करो। मैं नहीं कहता, एकदम से सिगरेट पीना छोड़ दो। होशपूर्वक करो। डब्बी को आहिस्ता से निकालो। जितनी जल्दी से निकाल लेते थे, उतनी जल्दी नहीं; थोड़ा समय लो। और तुम चकित होओगे : जितने तुम धीरे से निकालोगे उतने ही तुम पाओगे, धूम्रपान करने की इच्छा क्षीण हो गई। एक दफा ठोंकते हो सिगरेट को, सात दफा ठोंको। धीरे-धीरे ठोंको, ताकि ठीक से देख लो। क्या कर रहे हो! तुम्हें खुद ही मूढ़ता मालूम पड़ेगी कि यह भी क्या कर रहा हूं ! आहिस्ता से जलाओ माचिस को । धीरे-धीरे धुआं भीतर ले जाओ, धीरे-धीरे बाहर लाओ। इस पूरी प्रक्रिया को गौर से देखो कि यह तुम क्या कर रहे हो। धुआं भीतर ले गये, खांसे; फिर धुआं बाहर लाये, फिर खांसे - इसमें पैसा भी खर्च किया। डाक्टर कहते हैं, कैंसर का भी खतरा है, तकलीफ भी होती है, फेफड़े भी खराब हो रहे हैं ! जरा गौर से देखो, सुख कहां मिल रहा है। फिर धुएं को भीतर ले जाओ, फिर धुएं को बाहर लाओ। और गौर से देखो कि सुख कहां है ! है कहीं ?
मैं तुमसे नहीं कह रहा हूं कि नहीं है। यही मुझमें और तुम्हारे दूसरे साधु-संतों में फर्क है। वे कहते हैं, नहीं है । और बड़ा मजा यह है कि उन्होंने खुद भी पी कर नहीं देखा है। उनसे पूछो कि 'महाराज, आपने सिगरेट पी ? तुम्हें कैसा पता चला कि नहीं है ?' मैं तुमसे यह कह ही नहीं रहा कि नहीं है। तो कहता हूं : हो सकता है हो, और तुम्हें पता चल जाये तो मुझे बता देना। मगर तुम गौर से देखो पहले - है या नहीं ? पहले से निर्णय मत करो। गौर से देखोगे तो तुम हैरान हो जाओगे कि तुम कैसा मूढ़तापूर्ण कृत्य कर रहे हो ! यह तुम कर क्या रहे हो ? हाथ रुक जायेगा। ठिठक जाओगे। इसी ठिठकाव में क्रांति है। इसी अंतराल में से क्रांति की किरण उतरती है।
ऐसा छोटे-छोटे कृत्यों को करो। जाग कर करो। जल्दी रोकने की मत करना, पहले तो जाग कर करने की करना । फिर रुकना अपने से होता है । रुकना परिणाम है। तुम्हारे करने की बात नहीं; जैसे-जैसे बोध सघन होता है, चीजें बदलती हैं।
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जहां से खुद को जुदा देखते हैं खुदी को मिटा कर खुदा देखते हैं
अष्टावक्र: महागीता भाग-4