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से पैदा हुए हैं, अपूर्ण हो भी कैसे सकते हैं!
उपनिषद कहते हैं : पूर्ण से पूर्ण को निकाल लो, फिर भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। पूर्ण को पूर्ण में डाल दो, फिर भी पूर्ण उतना का ही उतना है।
हम सब पूर्ण हैं और पूर्ण से ही निकले हैं और निकल कर भी पूर्ण हैं। इस बोध के अनुभव का नाम ब्रह्मज्ञान, बुद्धत्व, कैवल्य या जो तुम चाहो। _पर ध्यान रखना, लड़ने-झगड़ने में मत उलझ जाना। यह छोड़ना, यह त्यागना, इससे भागना, इससे बचना...तुम मरोगे, फांसी लग जायेगी! फिर तो जीवन में बहुत झंझटें हैं। फिर झंझटें बहुत विराट हो जायेंगी। इधर से छूटोगे, उधर फंसा पाओगे। उधर से छूटोगे, इधर फंसा पाओगे। तुम तो जहां खड़े हो, एक ही बात कर लो, शांति से देखने लगो जो हो रहा है। बच्चे, पत्नी, मित्र, प्रियजन, कामधाम, दूकान, बाजार, सबके बीच तुम शांत होने लगो और देखते रहो। जो होता है होने दो। जैसा होता है वैसा ही होने दो। अन्यथा की मांग न करो। प्रभु जो दिखाये देखो। प्रभु जो कराये करो। ___ अष्टावक्र कहते हैं : धन्यभागी है वह, जो इस भांति सब छोड़ कर समर्पित हो जाता है। छोटी-छोटी चीजों से शुरू करो। बड़ी-बड़ी चीजों को शुरू मत करना। मन बड़ा उपद्रवी है। मन कहता है: बड़ी चीज पर प्रयोग करो। मैं कहता हूं: साक्षी बनो। तुम कहते होः अच्छा चलो, साक्षी बनेंगे-कामवासना के साक्षी बनेंगे। अब तुमने एक बड़ी झंझट उठा ली शुरू से। यह तो ऐसा हुआ कि जैसे पहाड़ चढ़ने गये तो सीधे एवरेस्ट पर चढ़ने पहुंच गये। थोड़ा पहाड़ चढ़ने का अभ्यास पूना की पहाड़ियों पर करो। फिर धीरे-धीरे जाना। एवरेस्ट भी चढ़ा जाता है; आदमी चढ़ा तो तुम भी चढ़ सकोगे। जहां आदमी पहुंचा वहां तुम भी पहुंच सकोगे। एक पहुंच गया तो सारी मनुष्यता पहुंच गई। - इसलिए तुमने देखा, जब एडमंड हिलेरी पहुंच गया एवरेस्ट पर तो सारी दुनिया प्रसन्न हुई। प्रसन्नता का कारण? तुम तो नहीं पहुंचे। तुम तो जहां थे वहीं के वहीं थे। लेकिन जब एक मनुष्य पहुंच गया तो भीतर सारी मनुष्यता पहंच गई। इसलिए तो जब कोई बुद्ध हो जाता है तो जिनके पास भी
आंखें हैं वे आह्लादित हो जाते हैं—नहीं कि वे पहुंच गये, मगर एक पहुंच गया तो हम भी पहुंच सकते हैं, इसका भरोसा हो गया। अब बात कल्पना की न रही, सपना न रही-सत्य हो गई।
छोटी-छोटी चीजों से शरू करना। राह पर चलते हो. साक्षी बन जाओ चलने के। इसमें कछ बड़ा दांव नहीं है। कोई झंझट भी नहीं है। घूमने गए हो सुबह, साक्षी-भाव से घूमो। शरीर चलता है, ऐसा देखो। तुम देखते हो, ऐसा देखो। भोजन कर रहे हो, साक्षी बन जाओ। बिस्तर पर पड़े हो, अब इसमें तो कुछ अड़चन नहीं है, कोई झंझट नहीं है। आंख बंद करके तकिये पर पड़े हो, नींद नहीं आ रही, साक्षी बन जाओ। पड़े रहो, देखते रहो जो हो रहा है। बाहर राह पर आवाज होती है, कार गुजरती है, हवाई जहाज निकलता है, बच्चा रोता है-कुछ हो रहा है, होने दो; तुम सिर्फ साक्षी बने रहो। ऐसी छोटी-छोटी पहाड़ियां चढ़ो। फिर धीरे-धीरे बड़ी पहाड़ियों पर प्रयोग करना। जैसे-जैसे हाथ में बल आता जायेगा, तुम पाओगे, फिर क्रोध, लोभ, मोह, माया, काम, सब पर प्रयोग हो जायेगा।
लेकिन मैं देखता हूं, लोग क्या करते हैं। उल्टा ही करते हैं। साक्षी की बात मैंने कही। वे जा कर एकदम बड़े पहाड़ से जूझ जाते हैं। हारते हैं! हारते हैं तो फिर साक्षी का भाव उठा कर रख देते हैं। कहते हैं, यह अपने बस का नहीं! यह तुम्हारे मन ने तुम्हें धोखा दे दिया। मन तुमसे हमेशा कहता है :
खुदी को मिटा, खुदा देखते हैं
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