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[ श्राचारङ्ग-सूत्रम्
के दो भेद बताये गये हैं-(१) द्रव्यशस्त्र-तलवार, अग्नि आदि और (२) भावशस्त्र-पापकर्म में प्रवृत्ति करते हुए मन, वचन और काया । यहाँ भावशस्त्र से अभिप्राय है। इससे 'शस्त्र-परिक्षा' का अर्थ हुआ-हिंसा या हिंसा के साधनों के दुष्परिणामों कोश-परिक्षा के द्वारा भलीभाँति जानकर प्रत्याख्यान-परिक्षा द्वारा उनका त्याग कर देना ।
आचार-महाशास्त्र के प्रारम्भ में ही हिंसा के त्याग का उपदेश देकर सूत्रकार यह बताना चाहते हैं कि विकास की ओर बढ़ने की भावना रखने वाले साधक के लिए अहिंसक-वृत्ति का विकास सर्वप्रथम आवश्यक है । अहिंसा या अहिंसक-भावना ही उत्थान है और हिंसा या हिंसा की भावना ही पतन है। अहिंसा ही सुख का राजमार्ग है और हिंसा ही दुख और अशान्ति की वीथिका है।
सारा संसार सुख का अभिलाषी होता हुआ भी दुख की आग में झुलस रहा है। चारों ओर हाहाकार, अशान्ति, करुण-क्रन्दन और व्याकुलता का साम्राज्य है। रक्तक्रान्तियां, महायुद्ध की विभीषिका, पूँजीवाद, साम्यवाद आदि वर्गों का संघर्ष, परमाणु बम जैसी संहारक शस्त्र-शक्तियों का अन्वेषण और प्रयोग-ये सब हिंसा के फल हैं । यही संसार को नरक के समान बना रहे हैं। दुनियां में इन्हीं की बदौलत शान्ति का नामोनिशान कहीं दृष्टिगत नहीं होता। यही अशान्ति और दुख का मूल कारण है।
इस अशान्ति से बचने के लिए सूत्रकार अहिंसा की ओर निर्देश करते हैं । अहिंसा ही वह संजीवनी है जो दुख से बेभान बने हुए प्राणियों को नवजीवन प्रदान कर सकती है। अहिंसा ही वह राम-बाण औषधि है जिसके सेवन करने से अशान्तिरूपी व्याधि नष्ट हो सकती है। अहिंसा ही अमृत है और हिंसा ही विष है। हिंसा के विष से दूर रहकर अहिंसा का अमृत-पान करने के लिए सूत्रकार शास्त्र के आदि में ही विधान कर रहे हैं । 'अहिंसा परमो धर्मः' यही सब शास्त्रों के मन्थन का मक्खन-सार है।
अहिंसा का व्यवहार जीवनव्यापी बने इसके लिए विवेक की आवश्यकता होती है । विवेकरहित क्रिया कर्मबन्धन का कारण हो सकती है। इस लिए विवेक अथवा सद्विचार का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं:
सुयं मे 'अाउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ (सू.१) तंजहा पुरथिमाश्रो वा दिसानो आगो अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाम्रो भागो अहमंसि, पचत्थिमाश्रो वा दिसाश्रो श्रागो अहमंसि, उत्तरात्रो वा दिसाम्रो आगो अहमंसि, उड्ढायो वा दिसाम्रो भागो अहमंसि, अहोदिसानो वा अागो अहमंसि, अण्णयरीश्रो वा दिसायो . अामुसंतेणं, आवसंतेणं । २चूर्यभिप्रायेण द्वितीयसूत्रावतरणमेतत् ।
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