Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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[Type text]
आगम-सागर-कोषः (भागः-३)
[Type text]
१९३।
| णिरुवहत-ण अजणखजणोवलित्तं ण वा णिरंतरता-निरन्तरभूमिस्पर्शिता। बृह. २२३ आ। अग्गिविदड्ढं मूसगखइयं वा। निशी. १३८ आ। णिरई-निरति देवानन्दाया नामान्तरम्। जम्बू०४९२।। णिरुवहय-निरुपहतः-स्फोटादिदोषविरहतः। ज्ञाता०६७। णिरक्किय-निराकृता-अपास्ता। उत्त० ३१९।
णिलुक्क-निल्लुकः-अन्तर्हितः। ज्ञाता० १५३| णिरणुग्गहकसिणं- छम्मासिए पट्ठविए पंचमासा चउवीसं | णिलुक्का-निलीनाः। आव. ९० च दिवसा वूढा, ताहे अण्णं छम्मासियं आवणो ताहे तं । | णिल्लेव-निर्लेपःवहति पुविल्लिस्स छद्दिणा जो सो। निशी० १३५आ। अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतागतवालाग्रलेपापणिरति-निसृजति। बृह. १४४ आ।
हारादपनीतधान्यलेपकोष्ठागारवत्। जम्बू. ९६। णिरभिग्गहो-दंसणसावगो। निशी० १२० ।
णिल्लेवगो-रजकः। आव. ५६२। रयगो। निशी. १२६) णिरयपडिरूविया-निरयप्रतिरूपिका नरकसदृशी। ज्ञाता० | णिल्लेवणं-णिग्गंध। निशी० २२२ अ। દરા.
णिल्लेवेति-धोवति। निशी० २११ । णिरयविभत्ति-सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चममध्ययनम्। णिवज्जंति-निष्पदयन्ते। मरण। उत्त०६१४
णिवज्जे-स्वपिति। ओघ० ८४॥ णिरवच्चो-निरपत्यः-शिष्यगणरहितः। आव. २४० णिवण्णेति-अवलोकयति-पश्यति। आव०६८८ णिरवलावे-निरपलापः-आचार्यस्यापरिश्रावित्वम्। प्रश्न | णिवन्ना-निवन्नाः-स्प्ताः। ज्ञाता० १२६। १४६|
णिवाणतडं-निपानतटम्। दशवै. ९४१ णिरवेक्खो-निरपेक्षः। आव० ८२०
णिवाय-निपातः-पतनम्। ज्ञाता० २६) णिरालए-निरालयः-वसतिप्रतिबन्धवन्ध्यः , यथोचितं णिवायगंभीरा-निवाता-वायोरप्रवेशात् किल महद् गृहं सत-तविहारित्वात्। जं०प०१४९।
निवातं प्रायो न भवति तत आह निवातगम्भीरा, णिरालोआ-निरालोकाः-निरस्तप्रकाशा
निवाता सती गम्भीरा निवातगम्भीरा, निवाता सती निरस्तदृष्टिप्रसरा वा। जम्बू. १६७।
विशाला इत्यर्थः। राज० ५८१ णिभिऊण-निरुध्य। महाप०
णिवारणं- नितरां वार्यते-निषिध्यतेऽनेन शीतवातादीति णिरुच्चारो- निरुच्चारः-निरुद्धप्रीषोत्सर्गः,
निवारणं सौधादि। वस्त्रादि वा। उत्त०८८1 अविद्यमानस-ञ्चरणः नष्टवचनोच्चारणो वा। प्रश्न | णिवारितो-निवारयन्तम्। उत्त० ३०५। १७। प्राकारस्योर्ध्वं जनप्रवेशनिर्गमवर्जितः। उच्चारः- | णिविज्जए- शेते। उत्त० ५५११ परीषं तदविसगार्थं यज्ज-नानां बहिर्निगमनं तदपि सः।। णिविज्जणं-निर्विजनम्। आव. ५०६) ज्ञाता० १४९।
णिविट्टो-परिणीओ। निशी. १४५अ। णिरुद्धपरियागो-जस्स तिण्णि वरिसाणि परियायस्स णिविण्णो-निर्विर्णः-निविष्टः। उत्त. २२४। संप-प्रणाणि| निशी० ८४ अ।
णिवज्झमाणि-अश्वादीनां नीयमाना। आचा० ४१३। णिरुद्धा-निरुद्धा। आव० ३४५। निरुद्धा-मूर्छिता निरुद्ध- णिवढित्ता-निर्वेष्ट्य-हापयित्वा। सूर्य. १२ चेष्टा। उत्त० १६०
णिवुड्ढेमाणे-निर्वेष्टयन्-हापयन्। सूर्य. १२, ३८१ णिरुवकिट्ठ-निरुपक्लिष्टः-व्याधिना प्राक् साम्प्रतं वाs- णिवेएति-समर्पयति। निशी० ३३२ अ। नभिभूतः। जम्बू.९०
णिवेदनं-आख्यानम्। निशी० ७३ आ। णिरुवद्दवा-निरुपद्रवा-अविदयमानराजादिकतोपद्रवा। णिवेदे-निवेदयित्वा। ओघ. १७५ औप.श
णिवेसण-महाघरस्स परिवाघरा णिवेसणं। निशी. १८७ णिरुवमा-णिग्गया उवमा जत्थ दृष्टान्ताभावः। निशी. अ। आसमंतावसा समादि सत्थट्ठाणं। निशी० २२९ अ। १४६ आ।
| निशी० १२७ आ। गृहम्। निशी० ७३ अ।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [३]

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