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+ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवत्रो महावीरस्स;
प्राचाराङ्ग-सूत्रम्
शस्त्रपरिज्ञा नाम प्रथमाध्ययनम्
-प्रथम उद्देशक
विश्ववन्ध, चरमतीर्थकर, श्रमण भगवान महावीर ने आधि, व्याधि और उपाधि के संताप से संतप्त बने हुए विश्व को शाश्वत शान्ति प्रदान करने के लिए, करुणा से प्रेरित होकर दिव्यदेशना की निर्मल मन्दाकिनी बहायी । इसकी पतित-पावनी शीतल धारा में अवगाहन करके अनन्त जीवों ने त्रिविध सन्ताप से मुक्ति प्राप्त की है, वर्तमान में अनन्त जीव मुक्ति प्राप्त करते हैं और भविष्य में भी मुक्ति प्राप्त करते रहेंगे। भगवान् की दिव्य-देशना का उद्देश्य बताते हुए प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है:
सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं । अर्थात-संसार के समस्त जीवों की रक्षा रूप दया के लिए भगवान् ने धर्मदेशना का दिव्य-दान दिया है।
भगवान की यह दिव्य-देशना द्वादशाङ्गी के रूप में गणधरों के द्वारा संकलित हुई है। इस द्वादशाङ्गी में प्राचाराङ्ग को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। यही प्राचार के महत्त्व को प्रदर्शित करता है । इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार कहते हैं:
सव्वेसिं पायारो तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए ।
सेसाई अंगाई एक्कारस आणुपुवीए ॥ सब तीर्थङ्कर तीर्थप्रवर्तन के प्रारम्भ में सर्वप्रथम आचार का ही निरूपण करते हैं। इसके पश्चात् शेष ग्यारह अङ्गों का प्ररूपण किया जाता है। गणधर भी इसी क्रम से तीर्थकर-भाषित अर्थ को
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