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सुख-बोध
मेघः प्राह
सुखानि पृष्ठतः कृत्वा, किमर्थं कष्टमुद्हेत् । जीवनं स्वल्पमेवैतत्, पुनर्लभ्यं न वाऽथवा ॥१॥
१. मेघ बोला-सुखों को पीठ दिखाकर कष्ट क्यों सहा जाए, जबकि जीवन की अवधि स्वल्प है और कौन जाने वह भी फिर प्राप्त होगा या नहीं ?
दो विचारधाराएं सदा से प्रचलित रही हैं :
१. अनात्मवादी २. आत्मवादी । अनात्मवादी विचारधारा के अनुसार जो कुछ दृश्य है, वही सब कुछ है। उसके आगे-पीछे कुछ भी नहीं है। जीवन दुर्लभ है, अतः इसमें जो कुछ सुख-भोग किया जाए वही सार है। इस विचारधारा ने मनुष्य को पौद्गलिक सुख की ओर प्रेरित किया और मनुष्य ने अपनी सारी शक्ति इसी को जुटाने में लगा दी। फलतः वह पौद्गलिक सुखों के उपभोग से जर्जर होता गया और अन्त में उसने देखा कि उसकी अतृप्ति, जो वास्तव में ही दुःख-परंपरा की जननी है, बढ़ती ही चली जा रही है। एक अतृप्ति से अनेक अतृप्तियां बढ़ी और मनुष्य उन्हीं में भटक गया। _दूसरी विचारधारा ने मनुष्य को आत्म-केन्द्रित बनाया और उसे पौद्गलिक सुखों से होनेवाली दुःख-परंपरा का बोध दिया। उसने सोचा-'खणमेत सोक्खा, बहुकाल दुक्खा'-इन्द्रियजन्य सुख क्षणमात्र स्थायी होता है। वह अनन्त काल तक दुःखों को बढ़ाता रहता है। इस विवेकचक्षु ने उसमें पौद्गलिक सुखानुभूति के प्रति विराग पैदा किया और वास्तविक सुख, जो आत्म-सापेक्ष है, की ओर प्रेरित किया।
मेघ साधक था, सिद्ध नहीं। अभी उसमें इन्द्रियजन्य सुखों के प्रति आसक्ति थी। उसने सोचा-'प्राप्त का त्याग और अप्राप्त की आकांक्षा अवास्तविक है।
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