Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 472
________________ परिशिष्ट-१ : ४०६ आदि शास्त्र पढ़े नहीं, इसका मुझे खेद नहीं है, किन्तु मैं जानता हूं वेदांत का सार है "ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या"। उन्होंने कहा है-'शास्त्र का सार श्री गुरुमुख से जान लेना चाहिए। शास्त्रों का सार जान लेने के बाद पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता? महावीर ने कहा है-"छिदाहि दोसं विणयेज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराये"-सुखी होने का मंत्र है- राग को दूर करना और द्वेष का छेदन करना"। राग-द्वेष की ऊमियां ही संसार है । स्वाध्याय की साधना में संलग्न व्यक्ति अपने भीतर इन तरंगों को बहुत सूक्ष्मेक्षिकया देखता है और वृत्तियों के उद्गम-स्थल पर ही इनका निवारण कर शांत और सुखी बनता है। (५) ध्यान तप और योग के समस्त अंगों में ध्यान प्राण है, जीवन है, आत्मा है। ध्यान के अभाव में समस्त अंग निर्जीव हैं । ध्यान ही उन्हें सजीव बनाता है। ध्यान सत्य के निकट ही नहीं अपितु सत्य की अनुभूति और प्रत्यक्षता को साधक के सामने प्रस्तुत करता है। यथार्थ धर्म ध्यान है। शास्त्रोक्त बातों की प्रत्यक्ष उपलब्धि उसके अभाव में असंभव है। धर्म विषयक विचार, भाषण तथा ग्रन्थों का पारायण यथार्थ नहीं है, किन्तु यथार्थ की दिशा में प्रेरित करने के उपाय मात्र हैं। बुद्ध ने बड़ी महत्त्वपूर्ण बात अपने शिष्यों से कही-- 'तुम्हेहि किच्च आतप्पं, अक्खातारो तथागता। पटिपन्ना पमोक्खन्ति, झाणिनो मारबन्धना ॥ -भिक्षुओ ! श्रम तो तुम्हें ही करना है । तथागत सिर्फ उपदेश देने वाले हैं। जो ध्यानी उस पथ पर आरूढ़ होते हैं, वे मार (शैतान) के भय से मुक्त होते हैं। .अब हम ध्यान के सम्बन्ध में ध्यान का महत्व क्या है ? ध्यान क्या है ? ध्यान का विषय क्या है ? ध्याता, ध्येय आदि विषयों पर विचार करेंगे। ध्यान का महत्व __ स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-"जितने मत हैं उतने मार्ग हैं, सभी उस मंजिल पर पहुंचते हैं।" ध्यान से रिक्त कोई धर्म नहीं है। सभी धर्मों में ध्यान की मुक्तकण्ठ से स्तवना की है। शरीर में जो महत्व मेरुदण्ड का है, धर्म में वही स्थान ध्यान का है। कोई भी योग का अभ्यास करे, ध्यान अनिवार्य है । ध्यान के बिना न नाद-श्रवण किया जा सकता है, न मन्त्र साधना, न बिन्दु साधना, और न आत्म-साधना हो सकती है। ध्यान को किसी भी तरह अस्वीकार नहीं किया जा सकता । जैन परम्परा के महान साधक अर्हद् दगमाली ने कहा है-- 'सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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