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अध्याय २ : २६
अप्रगट में, वह असत् चिन्तन कर ही नहीं सकता । साधना का यह उत्कर्ष रूप है । साधक सीधा वहां नहीं पहुंच सकता । इसलिए प्रारंभ में एकान्त वातावरण में मन को साधे और इन्द्रियों को साधे । मन और इन्द्रियों को साध लेने पर स्वप्न में भी उसका मन चलित नहीं हो सकता । एकान्तवास का यह भी अर्थ है कि साधक समूह में रहता हुआ भी अकेला रहे, एकान्त में रहे। इसका तात्पर्य यह है कि वह बाह्य वातावरण से प्रभावित न हो और 'एकोऽहम्' इस मन्त्र को आत्मसात् करता हुआ चले । स्थान की एकान्तता से भी मन की एकान्तता का अधिक महत्त्व है |
कामानुगुद्धिप्रभवं हि दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदैवतस्य । यत् कायिक मानसिकञ्च किचित्तस्यान्तमाप्नोति च वीतरागः ॥ १५॥
१५. देवताओं सहित सभी प्राणियों के जो कुछ कायिक और और मानसिक दु:ख है, वह विषयों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है । वीतराग उस दुःख का अन्त कर देता है ।
कामना से जो मुक्त है, वह दुःख से मुक्त है । जो उससे अछूता नहीं है वह दुःख से भी अछूता नहीं है । यह समूचा विश्व उसी से पीड़ित हैं- 'काम कामी खलु अयं पुरिसे' । जो इच्छाओं के वशवर्ती है वह शोक करता है, परिताप करता है और सदा बेचैन रहता है। इससे मुक्त न देवता हैं, न मनुष्य और न पशु । मुक्त है केवल वीतराग । राग इच्छा का अभिन्न साथी है । कामना का फंदा स्वतः टूट जाता है जब हम राग से विमुक्त हो जाते हैं । अशाश्वत पदार्थों में जो अनुराग - प्रेम है वही राग है । शाश्वत सत्य में रति होने पर संसार विनश्वर प्रतीत होने लगता है । फिर साधक किससे प्रेम करे और किससे अप्रेम | वह मध्यस्थ हो जाता है । यह मध्यस्थता ही वीतरागता है ।
मनोज्ञेष्वमनोज्ञेषु
स्रोतसां विषयेषु यः । न रज्यति न च द्वेष्टि, समाधि सोऽधिगच्छति ॥ १६॥
१६. मनोज्ञ और अनमोज्ञ विषयों में जो राग और द्वेष नहीं.
करता वह समाधि (मानसिक स्वास्थ्य ) को प्राप्त होत । है ।
स्पर्शा रसास्तथा गन्धा, रूपाणि निनदा इमे । ग्राहकाप्येषामिन्द्रियाणि
विषया
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यथाक्रमम् ।।१७॥
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