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अध्याय १४ : ३०६ क्षीण हो जाती है वह घर में रहता हुआ भो मोक्ष को आराधना कर सकता है।
गहेऽप्याराधना नास्ति, गृहत्यागेऽपि नास्ति सा। आशा येन परित्यक्ता, साधना तस्य जायते ॥३॥
३. मोक्ष की आराधना न घर में है और न घर को छोड़ने में अर्थात् उसका अधिकारी गृहस्थ भी नहीं है और गृहत्यागी भी नहीं है। उसका अधिकारी वह है जो आशा को त्याग चुका है।
'भगवान् का कथन है-मैंने साधक और गृहस्थ में कोई भेद-रेखा नहीं खींची है। साध्य की साधना के लिए प्रत्येक क्षेत्र खुला है। साधना हर कहीं हो सकती है। वह दिन में भी हो सकती है और रात में भी हो सकती है। अकेले में भी हो सकती है, बहुतों के बीच भी हो सकती है। सोते भी हो सकती है और जागते हुए भी। घर में भी हो सकती है और घर का त्याग करने पर भी। इसके लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है। प्रतिबन्ध एक ही है और वह है-आसक्ति का त्याग होना चाहिए। इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषयों में जब तक अनुराग है तब तक मुक्ति नहीं है, फिर भले वह साधक हो या गृहस्थ । आशा, इच्छा और आकर्षण ही बन्धन
है।
नाशा त्यक्ता गहं त्यक्तं, नासौ त्यागी न वा गही। आशा येन परित्यक्ता, त्यागं सोऽहंति मानवः ॥४॥
४. जिसने घर का त्याग किया किन्तु आशा का त्याग नहीं किया वह न त्यागी है और न गृहस्थ । वही मनुष्य त्याग का अधिकारी है जो आशा को त्याग चुका है।
त्यागी वह नहीं है जिसके पास वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शैया आदि भोगसामग्री नहीं है किन्तु त्यागो वह है जो प्राप्त भोग-सामग्री को विरक्त होकर ठुकराता है। पदार्थों के प्रति फिर उसका कोई आकर्षण नहीं रहता। भगवान् महावीर से पूछा-'भगवन् ! प्रत्याख्यान से आत्मा को क्या प्राप्त होता है ?
भगवान् ने कहा-'त्याग से व्यति वितृष्ण हो जाता है। मन को भाने वाले और न भाने वाले पदार्थों में उसका राग-द्वेष नहीं रहता।'
'उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलिया मट्टिया मया । दोवि आवडिया कुड्डो, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई ॥ (उत्तर०२५/४०)
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