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सहज-आनन्द
मेघः प्राह
सुखानां नाम सर्वेषां, शरीरं साधनं प्रभो ! विद्यते तन्न निर्वाणे, तत्रानन्दः कथं स्फुरेत् ॥१॥
१. मेघ बोला-प्रभो! सब सुखों का साधन शरीर है, किन्तु निर्वाण में वह नहीं रहता, फिर आनन्द की अनुभूति कैसे हो ?
मानसानाञ्च भावानां, प्रकाशो वचसा भवेत् ।
अवाचा कथमानन्दः, प्रोल्लसेद् ब्रू हि देव ! मे ॥२॥ २. मन के भावों का प्रकाशन वाणी के द्वारा होता है । जिन्हें वाणी प्राप्त न हो उनका आनन्द कैसे विकसित हो सकता है ? देव! आप बताएं।
चिन्तनेन नवीनानां, कल्पनानां समुद्भवः ।
सदा चिन्तन-शून्यानां, परितृप्तिः कथं भवेत् ॥३॥ ३. चिन्तन से नई-नई कल्पनाएं उद्भूत होती हैं। जो सदा चिन्तन से शून्य है, उसे परितृप्ति कैसे मिले ?
इन्द्रियाणि प्रवृत्तानि, जनयन्ति मनःप्रियम् ।
इन्द्रियेण विहीनानामनुभूतिसखं कथम् ॥७॥ ४. इन्द्रियां जब अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं तब वे मानसिक
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