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अध्याय ७ : १३७
-बनते हैं और जब असंयम से ओत-प्रोत होते हैं तब ये अश्रेयस्कर हो जाते हैं। -संयमी व्यक्ति का जीना भी अच्छा है ओर मरना भी । असंयमी व्यक्ति का न जीना अच्छा है, न मरना । संयमी व्यक्ति यहां जीता हुआ सत्क्रिया में प्रवृत्त रहता है, शांति और आनन्द का अनुभव करता है और जब वह मरता है तो उसकी अच्छी गति होती है । असंयमी व्यक्ति का जीवन न यहां अच्छा होता है और न उसका परलोक ही सुधरता है । जिसका वर्तमान पवित्र नहीं है, उसका भविष्य पवित्र नहीं हो सकता । जिसका वर्तमान पवित्र है, उसका भविष्य निश्चित रूप से सुन्दर होगा।
जैन दर्शन में कामनाओं का निषेध किया गया है । किन्तु मुमुक्षु के लिए - संयममय जीवन और संयममय मृत्यु की कामना का विधान मिलता है | श्रावक के तीन मनोरथों में एक यह भी है कब मैं समाधिपूर्ण मरण को प्राप्त करूंगा । जीवन की यह अन्तिम परिणति यदि समाधिमय होती है तो उसका फल श्रेयस्कर होता है ।
एक बार भगवान् महावीर समवसरण में बैठे थे। वहां राजा श्रेणिक, अमात्य अभयकुमार और कसाई कालसौकरिक भी उपस्थित थे। एक ब्राह्मण वहां आया । उसने भगवान् महावीर से कहा - मरो । राजा श्रेणिक से कहा- - मत मरो । अमात्य अभयकुमार से कहा - भले मरो, भले जीओ । कालसौकरिक से कहामत मरो, मत जीओ ।
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ब्राह्मण यह कहकर चला गया। राजा श्रेणिक का मन इन वाक्यों से आन्दोलित हो उठा। उसने भगवान् से पूछा । भगवान् ने कहा- राजन् ! वह ब्राह्मण के वेश में देव था । उसने जो कहा वह सत्य है। उसने मुझे कहा - मर जाओ । इसका तात्पर्य है कि मरते ही मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी । उसने तुझे कहा
- मत मरो । यह इसलिए कि तुझे मरने के बाद नरक मिलेगा । अमात्य से कहा - भले मरो, भले जीओ। क्योंकि वह मरने पर स्वर्ग प्राप्त करेगा और यहां भी उसे सुख ही है । कालसौकरिक से कहा – मत मरो, मत जीओ। क्योंकि उसका वर्तमान जीवन भी पापमय प्रवृत्तियों से आक्रान्त है और मरने पर भी उसे नरक ही मिलेगा ।
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इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि जीना अच्छा भी है और बुरा भी; मरना अच्छा भी है और बुरा भी ।
जो शब्द जितना अधिक व्यवहृत हो जाता है उतना ही अधिक वह रूढ़ बन जाता है । संयम की जो गरिमा प्रारंभ में उपलब्ध थी वैसी आज नहीं है । वह रूढ़ हो गया । यह केवल संयम शब्द के साथ ही ऐसा हुआ हो यह नहीं, सबके साथ ही कालान्तर में ऐसा हो जाता है। जितने भी क्रियाकाण्ड आज व्यवहृत हैं, उनके वृत्ति-काल में एक सौंदर्य था, जीवन्तता थी और चैतन्य था । कालचक्र के प्रवाह
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