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७६ : सम्बोधि
आत्मानन्द अमाप्य और अबाध होता है । पौद्गलिक सुख सीमित और सबाध होता है। ऋषियों ने कहा है :
'सुखमात्यन्तिकं यत्र, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्' – सुख वह है जो अतीन्द्रिय और आत्यन्तिक है । वह वाह्य-पदार्थ- सापेक्ष नहीं होता, आत्म-सापेक्ष होता है। इसका अनुभव तभी होता है जब व्यक्ति शारीरिक सुखों से विरत होता है । तुलसीदासजी ने कहा है :
'जहां राम तहां काम नहीं, जहां काम नहीं राम । तुलसी दोऊ कैसे मिलें, रवि रजनी इक ठाम ॥'
शारीरिक सुख और आत्मिक सुख - दोनों की अनुभूति एक साथ नहीं होती । - साधक के लिए प्रिय है आत्मानन्द । इसके लिए इन्द्रिय, मन और वाणी को आत्मा से योजित करना पर्याप्त है ।
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