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अध्याय १२ : २७६
६६. मेवावी पुरुष हाथ, पांव, मन, पांच इन्द्रियों, असद्-विचार और वाणी के दोष का उपसंहार करे ।
कृतञ्च क्रियमाणं च भविष्यन्नाम पापकम् । सर्वं तन्नानुजानन्ति, आत्मगुप्ता जितेन्द्रियाः ॥७०॥
७०. जो पुरुष आत्मगुप्त और जितेन्द्रिय हैं वे अतीत, वर्तमान और भविष्य के पापों का अनुमोदन नहीं करते ।
पाप अशुभ प्रवृत्ति है । अशुभ प्रवृत्ति में व्यक्ति पहले अपने को सताता है और जो स्वयं को दुःख देता है वही दूसरे को सताता है, इस दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि पाप है अपने को दुःख देना । जो आत्मस्थ हैं, स्वयं में स्थित हैं और जिनकी इन्द्रियां शान्त हो गई हैं वे स्वयं में प्रसन्न हैं, सुखी हैं, आनंदित हैं । सुखी व्यक्ति न स्वयं को सताता है और न दूसरों को कष्ट देता है । इसलिए पाप का अनुमोदन उसके द्वारा संभाव्य नहीं होता । अध्यात्म की साधना है -- स्वयं में प्रतिष्ठित होना । पाप से बचने की अपेक्षा स्वयं में स्थित होने का प्रयत्न अधिक सशक्त है | अपने से बाहर जाना ही पाप है ।
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