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अध्याय १५ : ३३३:
प्रकुर्वीत,
समभावस्य
लब्धये ।
सामायिकं भावना भावयेत् पुण्याः, सत्संकल्पान् समासृजेत् ॥४॥
४. समभाव की प्राप्ति के लिए सामायिक ( ४८ मिनट तक सावध प्रवृत्ति का परित्याग ) करे, आत्मा को पवित्र भावनाओं से भावित करे और शुभ संकल्प करे ।
संकल्प का अर्थ है - दृढ़ निश्चय । हम क्या हैं ? अपने संकल्पों से भिन्न और कुछ नहीं है । जैसे हम संकल्प करते हैं वैसे ही बन जाते हैं । अच्छे संकल्प अच्छा बनाते हैं, बुरे संकल्प बुरा । मनुष्य अच्छा बनने के लिए बुरे संकल्पों के स्थान पर अच्छों को स्थान दे । मैं दीन हूं, दुर्बल हूं अज्ञ हूं, रोगी हूं. दु:खी हूं, अभागा हूं आदि हीन संकल्प मनुष्य को वैसा ही बना देते हैं । यदि इनके स्थान पर मनुष्य पवित्र संकल्पों को संजोए तो वह स्वस्थ, सशक्त, विज्ञ, सुखी और सौभाग्यशाली बन सकता है।
'मेरा मन पवित्र संकल्प वाला हो। हम दीन बन कर न जिएं। कार्य करते हुए हम सौ वर्ष तक जिएं - ये क्या हैं ? जो हजारों वर्षों से संकल्प का महत्त्व समझाते आ रहे हैं। आज वैज्ञानिकों ने मानस की अपार क्षमता को परखा है और वे कहते हैं— 'तुम अपने संकल्प से भिन्न कुछ नहीं हो ।' श्रावक आत्म-शोधन करता हुआ संकल्पवान बने । उसे क्या करना है और क्या होना है, भगवान् ने इसका जो उत्तर दिया है वह इस अध्याय के दसवें श्लोक में है ।
स्थैर्य प्रभावना भक्तिः, कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा भवन्त्येता, भूषाः सम्यग्दृशोर्ध्रुवम् ॥५॥
५. धर्म में स्थिरता, प्रभावना - धर्म का महत्त्व बढ़े वैसा कार्य करना, धर्म या धर्म गुरु के प्रति भक्ति रखना, जैन शासन में कौशल प्राप्त करना और तीर्थ सेवा, चतुविध संघ को धार्मिक सहयोग देना – ये पांच सम्यक्त्व के भूषण हैं ।
सम्यक्त्व का शरीर सहज, सुन्दर होता है । जिसे वह प्राप्त है उसकी सुगन्ध स्वतः ही प्रस्फुटित होती है । उसका जीवन स्वयं ही एक पाठ है । वह जो कुछ करता है स्वभाव से भिन्न नहीं करता, दिखावा नहीं करता । जिसका होना ही धर्म को अभिव्यक्त करता है, उसका व्यवहार, आचरण भीतर से स्फूर्त होता है । कथनी और करनी में वैमनस्य का दर्शन नहीं होता । स्वभाव का स्वाद जिसने
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