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अध्याय ७ : १४७
३१. मनुष्य किसी के साथ विरोध न करे, न किसी से डरे और न किसी को डराए, न किसी के अधिकारों का अपहरण करे और न जाति का गर्व करे।
न कुलस्य न रूपस्य, न बलस्य श्रुतस्य च । नैश्वर्यस्य न लाभस्य, न मदं तपसः सृजेत् ॥३२॥
३२. मनुष्य कुल का मद न करे, रूप का मद न करे, बल का मद न करे, श्रुत का मद न करे, ऐश्वर्य का मद न करे, लाभ का मद न करे और तप का मद न करे।
न तुच्छान् भावयेज्जीवान्, न तुच्छं भावयेन्निजम् ।
सर्व-भूतात्मभूतो हि, स्यादहिंसापरायणः ॥३३॥ ३३. मनुष्य दूसरों को तुच्छ न समझे और अपने को भी तुच्छ न समझे। जो सब जीवों को अपनी आत्मा के समान समझता है, वह अहिंसा-परायण है।
उपरोक्त श्लोकों में अहिंसा का समग्र रूप प्रतिपादित हुआ है । जीव-घात ही हिंसा नहीं है, दूसरों पर अनुशासन करना, धोखा देना, अपने अधीन रखना, दुःख देना, दास बनाना, आदि प्रवृत्तियां भी हिंसा हैं । जो अहिंसक होता है, वह ऐसा नहीं कर सकता । अहिंसा सभी व्रतों का सार है। कहा गया है कि अहिंसा ही व्रत है और दूसरे सारे व्रत उसी के पोषक हैं। जो अहिंसा का सही अर्थ में पालन करता है, वह सत्य, ब्रह्मचर्य आदि सभी व्रतों का पालन करता है।
डराना हिंसा है तो डरना भी हिंसा है। अहिंसा डरना नहीं सिखाती। वह व्यक्ति में अभय की शक्ति जगाती है । वास्तव में वही व्यक्ति अभय हो सकता है, जो अहिंसक है। ___ अहिंसा की प्राप्ति के लिए हिंसा के कारणों का विसर्जन भी अपेक्षित है। हिंसा के हेतु हैं-विरोध, भय, दूसरों के अधिकारों को कुचलना, अभिमान, दूसरों को हीन मानना और स्वयं को भी हीन मानना। वैर से वैर बढ़ता है, प्रतिशोध की भावना प्रबल होती है। इसलिए अहिंसक सबके साथ मैत्री का संकल्प करता है। उसका घोष है-मेरी सबके साथ मैत्री है, किसी के साथ शत्रु-भाव नहीं है।
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