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अध्याय २ : ३१
सध सकता है। मन को इतना खुला भी मत छोड़ो कि वह नियन्त्रण के बाहर हो जाए और उसका इतना दमन भी मत करो कि वह और अधिक चंचल बन जाए। उसका ठीक-ठीक नियन्त्रण होना आवश्यक है। मन का नियन्त्रण साधना-सापेक्ष होता है। प्रतिदिन उसका अभ्यास होना चाहिए। मन गतिशील है । उसको रोका नहीं जा सकता। उसकी गति बदली जा सकती है। जो मन असत् चिन्तन या क्रिया में प्रवृत्त होता है, उसे साधना द्वारा सत् चिन्तन या क्रिया में प्रवृत्त किया जा सकता है। इसी का नाम है मन पर विजय ।
कामनाओं का उत्स है मोह । मोह की सघनता से कामनाएं बढ़ती हैं। ज्योंज्यों मोह क्षीण होता है, कामनाएं क्षीण होती जाती हैं। वीतराग में मोह का पूर्ण विलय हो जाता है । अतः वे कामनाओं से मुक्त होते हैं।
न रोद्ध विषयाः शक्या, विशन्तो विषयिव्रजे । सङ्गो व्यक्तोऽथवाव्यक्तो, रोद्धं शक्योस्ति तद्गतः ॥१६॥
१६. स्पर्श, रस आदि विषयों का इन्द्रियों के द्वारा जो ग्रहण होता है उन्हें नहीं रोका जा सकता, किन्तु उनके द्वारा होनेवाली स्पष्ट या अस्पष्ट आसक्ति को रोका जा सकता है।
इन्द्रियां केवल विषयों को ग्रहण करती हैं। विषयों के प्रति मनोज्ञता या अमनोज्ञता पदार्थों में नहीं, मन की आसक्ति में निहित है। जिस व्यक्ति में आसक्ति कम है वह पदार्थों का भोग करता हुआ भी चिकने कर्मों से नहीं बंधता। ____ जब तक शरीर है तब तक इन्द्रियों के विषयों को रोका नहीं जा सकता। कान न सुने, आंख न देखे—यह नहीं होता । सुनकर या देखकर उस पदार्थ के प्रति राग-द्वेष न लाना, यह व्यक्ति की साधना पर निर्भर है। साधना करते-करते ‘पदार्थों के प्रति आसक्ति मिटाई जा सकती है। साधना का यह फलित है । मन आसक्ति का उत्स है। वह ज्यों-ज्यों बहिर्मुख होता है, त्यों-त्यों आसक्ति बढ़ती जाती है । अन्तर्मुख मन आसक्ति का पार पा लेता है । जब मन आत्मा से सम्पर्क साध लेता है, तब बाह्य विषयों के प्रति आसक्ति मिट जाती है। ___इसलिए साधक विषयों को रोकने का प्रयत्न न करे, किन्तु मन को इतना साधे कि उसमें राग-द्वेष आए ही नहीं। ___मन को साधने का एक मार्ग है-पूर्व मान्यताओं का त्याग। मान्यता का संसार बड़ा विचित्र है। प्रियता और अप्रियता मन की मान्यता ही है। मान्यता को छोड़े बिना यथार्थ ज्ञान नहीं होता।
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