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आमुख
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तीन प्रकार के पुरुष होते हैं - जागृत, अर्द्धजागृत और अजागृत। तीनों में सुख की आकांक्षा होती है । तीनों सुख के लिए प्रयत्न करते हैं, किन्तु तीनों का विवेक भिन्न होता है ।
सुख दो प्रकार का होता है :
१. आत्मिक सुख या शाश्वत सुख ।
२. भौतिक सुख या अशाश्वत सुख ।
जागृत व्यक्ति आत्मिक सुख के आकांक्षी होते हैं और वे उसकी प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्न करते हैं । वे जानते हैं कि इन्द्रियजन्य सुख सुख नहीं, वास्तव में में वह दुःख - उत्पादक है । जिस सुख की अन्तिम परिणत दुःख में होती है, उसे सुख नहीं कहा जा सकता । किन्तु मूढ़ व्यक्ति उसी में फंसकर अपना विवेक खो बैठता है ।
अर्द्धजागृत व्यक्ति का विवेक पूर्णतः जागृत नहीं होता । वह शाश्वत और अशाश्वत के बीच झूलता है । इन्द्रियजन्य सुख की ओर उसकी गति होती है और कभी-कभी वह इनसे इतना ऊब जाता है कि उसकी आत्मा दुःख से उद्वेलित होकर चीख उठती है । तब वह आत्मिक सुख की टोह में प्रस्थान करता है । उसे पाता है, किन्तु उसमें स्थिर नहीं हो पाता । बाह्य वातावरण उसे अपनी ओर खींचता है और तब उसकी भूमिका बदल जाती है । वह पुनः इन्द्रियजन्य सुख की ओर दौड़ पड़ता है।
अजागृत या सुप्त व्यक्ति का विवेक पूर्णतः सुप्त होता है । उसमें शाश्वत और शाश्वत का विवेक ही नहीं होता । वह चलता है किन्तु बिना लक्ष्य के । इसलिए वह कहीं नहीं पहुंच पाता । पूर्व-संचित गाढ़ संस्कारों के कारण इन्द्रिय-सुख की ओर उसकी दौड़ होती है । वह उन सुखों के उत्पादन के लिए सभी सम्भव प्रयत्न करता है । कभी उनकी प्राप्ति में सफल होता है और कभी नहीं । मूढ़ता बढ़ती जाती है और वह उसी में रच-पच जाता है ।
इस अध्याय में आत्म-सुख और पौद्गलिक सुख का विवेक दिया गया है ।
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