Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 430
________________ अध्याय १६ : ३६७ तू अपना सर्वस्व मुझे दे चुका है । यह मेरा कार्य है और तुझे करना है। ऐसा मान करके कर।' साधक के लिए 'मैं' को तोड़ना अनिवार्य है । मैं करता हूं, मैं खाता हूं, मैं देता हूं आदि । मैं को तोड़ने के लिए यह सरलतम उपाय हैं । वह बीच में स्वयं न आए। सब कुछ है वह गुरु है, प्रभु है। महावीर इसी भावना को प्रस्तुत कर रहे हैंमेघ ! तू अपने मन, चित्त, अध्यवसाय को आत्मा में नियोजित कर समस्त क्रियाएं करता हुआ आत्मा को सामने रख । जीवन और मृत्यु तथा इन्द्रियों के प्रवृत्तिकाल में आत्मा को एक क्षण भी विस्मृत मत कर। आत्मा की विस्मृति दुःख है और स्मृति सुख । प्रवृत्ति का स्रोत बदल जाने पर सब कुछ बदल जाएगा । अब तक जो कुछ करता आया था उसमें शरीर मन, वाणी और इन्द्रियों की प्रधानता थीं और अब आत्मा प्रधान हो जाएगी। बाहर की प्रवृत्ति चंचलता लाती है और अन्तर् से दूर करती है । जीवन का परम सार-सूत्र है—आत्म-स्थित होना, आत्मा को सामने रखकर प्रवृत्त होना। समितो मनसा वाचा, कायेन भव सन्ततम् । गुप्तश्च मनसा वाचा, कायेन सुसमाहितः ॥६॥ ६. तू मन, वचन और काया से निरन्तर समित (सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला) बन तथा मन, वचन और काया से गुप्त और सुसमाहित बन। निवृत्ति-अक्रिया जीवन का साध्य है। प्रवृत्ति साध्य नहीं, किन्तु जीवन की सहचरी है। कोई भी व्यक्ति शरीर की विद्यमानता से पूर्ण निवृत्त नहीं हो पाता। प्रवृत्ति का पहला चरण है कि वह प्रवृत्ति सुप्तदशा-यान्त्रिक दशा में न हो, पूर्ण होश सजगता पूर्वक हो । प्रवृत्ति में होने वाली गन्दगी, अशुद्धि को सावधानता जला डालती है, वह उसे सम्यग् बना देती है। सजगता के अभाव में प्रवृत्ति के साथ क्रिया तन्मय होकर गन्दगी ले आती है। व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। प्रवृत्ति का दूसरा चरण है प्रवृत्ति को निवृत्ति में बदलना। गुप्ति है गोपन, संवरण । शरीर को स्थिरक र मन, को शान्त कर, मौन होकर कुछ समय के लिए प्रवृत्ति को विश्राम देना, जिससे उस अक्रिय आत्मा की झांकी प्रतिबिम्बित हो सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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