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३४ : सम्बधि
व्यक्ति स्वभावतः वर्तमान- द्रष्टा होता है, परिणाम द्रष्टा नहीं। वह वर्तमान के आधार पर अपने विचार या कार्य को तोलता है, उसके परिणाम को नहीं देखता । जो व्यक्ति परिणाम द्रष्टा होता है, उसे क्षणिक सुख लुभावने नहीं लगते । उसकी प्रत्येक क्रिया आत्माभिमुखी होती है । उसका प्रत्येक चरण शाश्वत सुख की उपलब्धि की ओर बढ़ता है ।
जो व्यक्ति वर्तमानदर्शी है उसे इन्द्रियजन्य सुख तृप्तिकर लगते हैं । वह उनमें इतना रचा-पचा रहता है कि वे उसे आगे से आगे आकर्षक लगने लगते हैं । इन्द्रि - जन्य सुख से तृप्ति नहीं होती, अतृप्ति बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों विषयों का उपभोग होता है, अतृप्ति की वृद्धि होती है और व्यक्ति उसी में फंसा रह जाता है । तृप्ति वस्तुओं के उपभोग में नहीं, उनके त्याग में है । पदार्थ त्याग से आसक्ति घटती है और आसक्ति की हानि से अतृप्ति सिमटती जाती है । ज्यों-ज्यों त्याग बढ़ता है, त्यों-त्यों तृप्ति बढ़ती है । ज्यों-ज्यों भोग बढ़ता है, अतृप्ति भी उसी अनुपात से बढ़ती जाती है ।
अतृप्ति अनेक दोषों को उत्पन्न करती है । अतृप्त व्यक्ति का विवेक नष्ट हो ता है और वह नकेन प्रकारेण पदार्थ -प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है । इस प्रवृत्ति- बहुलता का कहीं अंत नहीं होता । व्यक्ति इसी आवर्त में प्राण खो बैठता है । 'अतृत व्यक्ति चोरी करता है - यह अतृप्ति का परिणाम है । डाका डालना ही चोरी नहीं है, किन्तु शोषण करना, मिलावट करना, दूसरों को ठगना-ये सब चोरी के प्रकार हैं । अतृप्त व्यक्ति इन सब दोषों का शिकार बन जाता है। संतुष्ट व्यक्ति इन सबसे अछूता रहता है । तृप्ति और अतृप्ति का केन्द्र मन है । मन सन्तुष्ट होने पर धनवान् और गरीब का भेद नहीं रहता । भर्तृहरि ने कहा है'मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः ।' एक कवि ने कहा है...
'गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान । जब आवे संतोष धन सब धन धूलि समान ॥ सबसे बड़ा धन संतोष है तृप्ति है ।
तृष्णया ह्यभिभूतस्य, अतृप्तस्य परिग्रहे । माया मृषा च वर्धते, तत्र दुःखान्न मुच्यते ॥ २४ ॥
२४. जो तृष्णा से अभिभूत और परिग्रह से अतृप्त होता है उसके कपट और झूठ बढ़ते हैं । इस जाल में फंसा हुआ व्यक्ति दुःख से मुक्त नहीं होता ।
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