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अध्याय ६ : ११७
है-आत्म-द्रष्टा के इस निरूपण में वे ही लोग शंका करते हैं जो अनात्मदर्शी हैं।
पूज्यपाद देवनन्दी ने कहा है-“सम वही हो सकता है जो जगत् की चेष्टाओं को स्पंदन-रहित होकर देखता है, विकल्प और क्रिया के भोग से जो दूर रहता है।" यह आत्म-सुख में रमण करने की स्थिति है। स्पंदन शरीर और शरीरजन्य धर्म है । उसे देखकर जो शान्त रहता है वही आनन्द का अनुभव कर सकता है।
आत्म-दर्शन में वादों की परिसमाप्ति हो जाती है। वहां केवल एक आत्मवाद ही रहता है। विभेद और वितर्क मलिन दशा के परिणाम हैं । हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के सम्मिश्रण से पानी बनता है। इसे आप चाहे जहां देख सकते हैं। आत्म-दर्शन की अनुभूति भी देश, क्षेत्र और काल की सीमाओं से बाधित नहीं होती।
विविध मान्यताओं का वर्गीकरण दो भागों में किया जा सकता है : क्रियावाद-आत्मवाद और अक्रियावाद-अनात्मवाद ।
आत्मवादी आत्मा को केन्द्र मानकर चलता है। वह आत्मा के साथ कर्मविजातीय तत्त्व का योग देखता है। आत्मा उसके लिए स्वरूपतः शुद्ध और कर्मबन्धन से अशुद्ध भी है। कर्म है, कर्म-बन्धन है तो उसका फल भी है । उसका इनमें विश्वास होता है। कर्म से होने वाली स्वर्ग और नरक गति भी उसे स्वीकार्य है। कर्म-मुक्ति से आत्म-स्वातन्त्र्य-मोक्ष भी उसके लिए अस्वीकार्य नहीं है।
कर्म-मुक्ति का साधन जो धर्म है, उसमें भी उसकी पूर्ण आस्था होती है। बाहरी सम्बन्ध अवास्तविक हैं। वास्तविक सम्बन्ध आत्मा से आत्मा का है। आत्मा को देखने वाला आत्म-स्वार्थ के अतिरिक्त अन्य स्वार्थों से आत्मा का अहित नहीं करता । आत्महित ही उसकी दृष्टि में प्रधान होता है। ___ अनात्मवादी की मान्यता उससे उल्टी होती है। शारीरिक सुख को वह प्रधानता देता है । इन्द्रिय-जगत् में ही वह अधिक जीता है। इसी का यहां निरूपण है।
सुकृतानां दुष्कृतानां, निविशेष फलं खलु ।
मन्यन्ते विफलं कर्म, कल्याणं पापकं तथा ॥३॥ ३. अनात्मदर्शी लोग सुकृत और दुष्कृत के फल में अन्तर नहीं मानते और भले-बुरे कर्म का भला-बुरा फल भी नहीं मानते।
चार्वाक दर्शन के प्रणेता आचार्य वृहस्पति की मान्यता में यही तत्त्व है । वे
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