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२६० : सम्बोधि ११. 'लोक पुरुषाकृति वाला है'—ऐसा चिन्तन करना लोक भावना
१२. 'बोधि दुर्लभ है'-ऐसा चिन्तन करना बोधि-दुर्लभ भावना है ।
ये बारह भावनाएं है।
सुहृदः सर्वजीवा मे, प्रमोदो गुणिषु स्फुरेत् । करुणा कर्मखिन्नेषु, माध्यस्थ्यं दोषकारिषु ॥५०॥
५०. १३. 'सब जीव मेरे मित्र हैं' ऐसा चिन्तन करना मैत्री भावना है । १४. 'गुणी व्यक्तियों में मेरा अनुराग है'-ऐसा चिन्तन करना
प्रमोद भावना है। १५ ‘कर्मों से आर्त बने हुए जीव दुःख से मुक्त बनें'-ऐसा चिन्तन
करना करुणा भावना है। १६. दुष्चेष्टा करने वाले व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा रखना'--यह
मध्यस्थ भावना है। इन चार भावनाओं के योग से भावनाएं सोलह होती हैं (१२+४)।
संस्काराः स्थिरतां यान्ति, चित्तं प्रसादमृच्छति ।
वर्द्धते समभावोऽपि, भावनाभिर्धवं नृणाम् ॥५१॥ ५१. इन भावनाओं से संस्कार स्थिर बनते हैं, चित्त प्रसन्न होता है और समभाव की वृद्धि होती है ।
भावनाभिविमूढाभिर्भावितं मूढतां व्रजेत् । चित्तं ताभिरमूढाभिर्भावितं मुक्तिमहति ॥५२॥
५२. मोहयुक्त भावनाओं से भावित मन मूढ़ बनता है और मोह-रहित भावनाओं से भावित होकर वह मुक्ति को प्राप्त होता
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