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परिशिष्ट-१ : ३६७. और आंतरिक तप। ये भेद केवल औपचारिक हैं। स्थूल और सूक्ष्म शरीर की भांति ये भी संयुक्त हैं । सूक्ष्म की अभिव्यक्ति का माध्यम स्थूल है। आंतरिक तप का प्रभाव स्थूल पर आये बिना नहीं रह सकता है और स्थूल का भी सूक्ष्म पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। बाह्य तप इसलिए है कि उसका बाहर के पदार्थों के साथ सम्बन्ध है तथा वह परिदृश्य है । आंतरिक तप में दूसरों को भिन्न भी अनुभव हो सकता है । या वह अज्ञात भी रह सकता है। उसका सम्बन्ध केवल व्यक्ति से है। वह कब, कैसे कर रहा है यह ज्ञात नहीं होता । बाहर के सम्बन्धों की वह पूर्णतया उपेक्षा कर देता है। उसका प्रमाण वह स्वयं ही है। जापान का सम्राट महान् साधक रिझाई के पास पहुंचा और पूछा- 'मैं कैसे जाने की आपने जान लिया है । रिझाई ने उत्तर दिया 'मुझे देखो, मेरे कार्यों को देखो, यदि समझ सको तो समझ लेना।' सम्राट ने कहा 'आपको देखने से क्या होगा ? कृपया कोई प्रमाण बतायें ।' रिझाई ने कहा-और कोई गवाह-प्रमाण नहीं है । क्रियाओं से ही जान सको तो जानो।
__ आभ्यन्तर को छोड़कर केवल बाहर को पकड़ने के कारण धर्म की सरिता सूख गयी । उसका कोई स्वाद नहीं रहा। जीवन मुर्दे जैसा हो गया । सर्वत्र वीरान ही वीरान दृष्टिगत होता है। ऐसा लगता है, मनुष्य की महान शक्ति किसी ने छीन ली हो । वह रस रहित गन्ने के छिलकों की तरह हो रहा है। प्रेम, करुणा, शान्ति, सरलता, सहजता आदि सदगुणों के शुष्क स्रोतों को पुन: प्रवाहित करने का एक उपाय है कि बाहर के लगाव से मानव को मुक्त कर अन्दर के प्रति प्रोत्साहित आकृष्ट और निष्ठावान किया जाये। इसी में धर्म की जीवन्तता चेतनता है। धर्म को बचाने का एक मात्र यही उपाय है। बाह्य तप आभ्यन्तर के लिए है। आभ्यन्तर के बिना बाह्य तप की सार्थकता भी क्या है ? आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है
'मनः शुद्धयैव शुद्धिः स्याद, देहिनां नात्र संशयः ।
वृथा तव्यतिरेकेण, कायस्यैव कदर्थनम् ॥" ... 'इसमें कोई संशय नहीं है कि मनुष्यों की शुद्धि, पवित्रता मानसिक शुद्धि से होती है। मानसिक पवित्रता के बिना केवल शरीर को कथित करना बुद्धिमानी नहीं है।'
बाह्य तप के प्रकार(१) अनशन...
व्यवहार भाष्य में लिखा है—'साधक ! सिर्फ स्थूल शरीर को क्यों कृशकमजोर कर रहा है ? कमजोर करना है तो सूक्ष्म शरीर-कर्मण शरीर, कषाय
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