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अध्याय ३ : ५५
८-६. जो मनुष्य इस बात में श्रद्धा नहीं रखता कि अपना किया हुआ कर्म भुगतना पड़ता है या इस बात में श्रद्धा रखता हुआ भी अपनी आत्मशक्ति को सत्कार्य में नहीं लगाता, वह कष्ट से कतराता है। वह कष्ट आ पड़ने पर खिन्न होता है और कष्टों के आने की आशंका से अपने स्वीकृत मार्ग को त्याग देता है।
नास्तिक-भौतिकवादी व्यक्ति कष्ट सहने में समर्थ नहीं होते । किए हए कर्मों को भोगना होता है-इसमें उनका विश्वास नहीं होता। इसलिए सत्कार्यों में उनकी अभिरुचि नहीं होती और न इसे वास्तविक भी मानते हैं। वे कष्टों में अधीर बन अपने सत्त्व को गंवा बैठते हैं।
नास्तिकों में अध्यात्म का सर्वथा अभाव रहता है, यह एकान्ततः नहीं कह सकते । आस्तिकता की मात्रा उनमें दबी रहती है। समय पाकर किसी-किसी में वह उबुद्ध भी हो जाती है। बहुत से व्यक्ति सुख में नास्तिक होते हैं, और दुःख में आस्तिकता की ओर झुक जाते हैं। उन्हें यह लगने लगता है कि दुःख भी एक तत्त्व है। व्यक्ति जैसा करता है, उसे उसका फल भी भोगना होता है। 'कृतस्य कर्मणो नूनं, परिणामो भविष्यति'-किए हुए कर्म का फल अवश्य भुगतना होता है। मैं कर्म करने में स्वतन्त्र हूं किंतु भोगने में परतन्त्र हूं। फल अवश्य भुगतना पड़ता है।' ये विचार आस्तिकता की ओर ले जानेवाले हैं।
मार्गोयं वीर्यहीनानां, वत्स ! नैष हितावहः ।
धीरः कष्टमकष्टञ्च, समं कृत्वा हितं व्रजेत् ॥१०॥ १०. वत्स ! यह वीर्यहीन व्यक्तियों का मार्ग है । यह मुमुक्षु के लिए हितकर नहीं है। धीर पुरुष सुख-दुःख को समान मानकर अपने हित की ओर जाता है।
द्वन्द्वों (सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान आदि) में अधीरता का होना यह प्रकट करता है कि अभी हम अविद्या और अज्ञान के घेरे में हैं। धीर व्यक्ति बाधाओं को चीरता हुआ निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है। स्वहित के अतिरिक्त वह और कुछ नहीं देखता। मेघः प्राह
सुखास्वादाः समे जीवाः, सर्वे सन्ति प्रियायुषः । अनिच्छन्तोऽसुखं यान्ति, न यान्ति सुखमीप्सितम् ॥११॥
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