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२८२ : सम्बोधि
विश्वास हिंसा में होता है । कुछ आत्मा को मोक्ष में जड़ मानते हैं। जितने वाद हैं। उनकी पृष्ठभूमि में विविधता भरी है। दार्शनिकों के मतवादों से मनुष्य अनेक मान्यताओं में विभक्त है। इसलिए उनका साध्य भी एक नहीं है। साध्य की अनेकता में साधनों की अनेकता भी अखरने वाली नहीं है।
साध्य और साधन के स्पष्ट विवेक में अनेकता एकता का वरण कर लेती है। वहां सत्य का आग्रह होता है, मिथ्या का नहीं । सत्याग्रही असंदिग्ध होता है। साधक के लिए दृढ़ आस्थावान होना आवश्यक है। संदिग्ध व्यक्ति साध्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता।
विद्यते नाम लोकोऽयं, न वा लोकोऽपि विद्यते । एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥३॥
३. लोक है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य (आठवें श्लोक में बताए जाने वाले) की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता।
विद्यते नाम जीवोऽयं, न वा जीवोपि विद्यते । एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥४॥
४. जीव है या नहीं इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता।
विद्यते नाम कर्मेदं, न वा कर्मापि विद्यते। एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥५॥
५. कर्म है या नहीं इस प्रकार से संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता।
अस्ति कर्मफलं वेद्यं, न वा वेद्यं च विद्यते। एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥६॥
६. कर्म का फल भोगना पड़ता है या नहीं-इस प्रकार संदिग्ध
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