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अध्याय २ : ३३
करता है। उपभोग से आसक्ति बढ़ती है और पुनः वह इसी प्राप्ति, संरक्षण और उपभोग के आवर्त में फंस जाता है। यह आवर्त तब तक समाप्त नहीं होता जब तक कि व्यक्ति मोह के पाश से छूट नहीं जाता। एक मूढ़ता दूसरी मूढ़ता को जन्म देती है। इस क्रम में व्यक्ति अनन्त मूढ़ताओं का शिकार बनकर नष्ट हो जाता है। अर्थ के अर्जन में दुःख है और अजित के संरक्षण में और भी अधिक दुःख है । अर्थ आता है तब भी दुःख देता है और जाता है तब भी कष्ट देता है।
उत्पादं प्रति नाशो हि, निधि प्रति तथा व्ययः । क्रियां प्रत्यक्रिया नाम, साशयं लघु धावति ॥२२॥
२२. उत्पादन के पीछे नाश, संग्रह के पीछे व्यय और क्रिया के पीछे अक्रिया निश्चित रूप से लगी हुई है।
इस सचाई को समझे बिना व्यक्ति सत्य के प्रति समर्पित नहीं हो सकता। केवल ज्ञान से जान लेना एक बात है और अनुभूति के आधार पर उसे परखना भिन्न बात है। जो केवल जानता है, अनुभूति नहीं रखता, वह सत्य का आस्वादन नहीं कर पाता और न स्वयं को सुरक्षित भी रख पाता है। हमने सुनी है एक घटना। एक घर में चोर घुसे । कुछ आहट से श्रेष्ठी-पत्नी की नींद टूट गई। उसने पति से कहा—'कुछ आवाज आ रही है। लगता है, चोर घर में घुस आये हैं।' श्रेष्ठी ने कहा—'मैं जानता हूं।' चोर जहां खजाना था, वहां पहुंच गये। पत्नी के कहने पर श्रेष्ठी ने 'मैं जानता हूं' कह कर टाल दिया। धन की थैलियां बांध ली और चलने लगे, तब फिर पत्नी ने संकेत किया तो वही उत्तर मिला कि 'मैं जानता हं'। परिणाम जो आना था वही आया। चोर सबकुछ लेकर चले गए।
उत्पत्ति विनाश से मुक्त नहीं हैं, संग्रह व्यय से शून्य नहीं है और क्रिया विश्राम से खाली नहीं है। केवल जान लेना बंधन से मुक्त नहीं करता। मुक्ति के लिए अन्तर्बोध अपेक्षित है । जिस दिन मनुष्य के अन्तःकरण में यह बोध हो जाता है, उस दिन उसके कदम शाश्वत की दिशा में स्वतः उठने लग जाते हैं।
अतप्तो नाम भोगानां, विगमेन विषीदति ।
अतृप्त्या पीडितो लोक, आदत्तेऽदत्तमुच्छ्यम्॥२३॥ २३. अतृप्त व्यक्ति भोगों के नाश होने से दुःख पाता है और अतृप्ति से पीड़ित मनुष्य अदत्त लेता है-चोरी करता है।
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