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२८८ : सम्बोधि
"कारणे सति कार्योत्पत्तिः"-कार्य कारण के बिना उत्पन्न नहीं होता। सूक्ष्म शरीर न हो तो स्थूल शरीर कैसे हो सकता है ? इसलिए एक शरीर से दूसरे शरीर के प्रवेश की कठिनाई नहीं रहती। आत्मद्रष्टा स्थूल शरीर को नहीं मिटाना चाहता, वह चाहता है मूल को उखाड़ना । जन्म और मृत्यु का मूल है सूक्ष्म-शरीर । सूक्ष्मशरीर का मूलोच्छेदन तब ही होता है जबकि आत्मा पूर्णसंयम (निरोध) की स्थिति में पहुंच जाती है। शरीर के तीन वर्ग हैं० स्थूल शरीर-औदारिक शरीर-हाड़-मांस का शरीर। • सूक्ष्म शरीर-वैक्रिय शरीर-नाना रूप बनाने में समर्थ शरीर ।
आहारक शरीर-विचार-संवाहक शरीर । ० सूक्ष्मतम शरीर-तैजस शरीर-तापमय शरीर।
कार्मण शरीर-कर्ममय शरीर। तैजस शरीर तापमय शरीर है । वह हमारी उष्मा, सक्रियता और शक्ति का संचालक है। यह न हो तो उष्मा पैदा नही हो सकती, पाचन नहीं हो सकता, रक्त का संचार नहीं हो सकता । यह तैजस शरीर ही हमारी स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं (संरचनाओं) का संचालन करता है। स्थूल शरीर में शक्ति का सबसे बड़ा भंडार है-तेजस शरीर। जिस का तेजस शरीर मंद है—अग्नि मंद है, उसकी सारी क्रियाएं मंद हो जाती हैं । अग्नि तीव्र है तो सारी क्रियाएं तीव्र हो जाती हैं।
तैजस शरीर के दो कार्य हैं१ शरीर-तन्त्र का संचालन । २ अनुग्रह और निग्रह का सामर्थ्य ।'
बाध्यमानो ग्राम्यधर्म, रूक्षं भुञ्जीत भोजनम् ।
प्रकुर्यादवमौदर्य-मूवं स्थानं स्थितो भवेत् ॥१४॥ १४. मुनि ग्राम्यधर्म [काम-विकार] से पीड़ित होने पर रूक्ष भोजन करे, मात्रा में कम खाए और कायोत्सर्ग करे ।
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नकत्र निवसेन्नित्यं, ग्राम ग्राममनुव्रजेत् ।
व्युच्छेदं भोजनस्यापि, कुर्यात् रागनिवृत्तये ॥१५॥ १५. मुनि एक स्थान में सदा निवास न करे, गांव-गांव में विहार करे और राग की निवृत्ति के लिए भोजन को भी छोड़े। १. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ, 'मन के जीते जीत' पृष्ठ १६० ।
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