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अध्याय २ : ४७
५०. वत्स ! तूने अभी तत्त्व को नहीं जाना। तन्मय होकर सुन । मैंने मूल स्वरूप की दृष्टि से आत्मतुलावाद का कथन किया
अनन्तं नाम चैतन्यमानन्दश्चाप्यबाधितः । अस्त्यप्रतिहता शक्तिः, जीवमात्रे स्वरूपतः ॥५१॥
५१. प्राणी मात्र में अनन्त चैतन्य, अनाबाध आनन्द और अप्रतिहत शक्ति है । यही उनका स्वरूप है।
कर्मभि व जीवेषु, कृतो भेदः स्वरूपतः । स्वरूपावरणे भेदः, मात्राभेदेन तैः कृतः ॥५२॥
५२. कर्मों द्वारा जीवों के स्वरूप में भेद नहीं होता। सबके स्वरूप का आवरण एक-जैसा नहीं होता, किन्तु वह मात्रा-भेद से होता है-कृत के अनुसार क्षीण और प्रगाढ़ होता है।
अस्तित्वं भिद्यते नैव, तेनात्मौपम्यमहति । अभिव्यक्तावसौ भेदः, नासौ भेदोस्ति वास्तवः ॥५३।।
५३. कर्म द्वारा अस्तित्व (स्वरूप) में भेद नहीं होता अतः आत्मौपम्य वास्तविक है । उसकी अभिव्यक्ति में भेद होता है इसलिए यह भेद यथार्थ नहीं है।
मेघः प्राह
कथं त्वयाऽहमिन्द्राणां, सिद्धान्तः प्रतिपादितः ?
यद्येष घटते तहि, कर्मवादो विलीयते ॥५४॥ ५४. मेघ ने कहा-भगवन् ! आपने अहमिन्द्र के सिद्धान्त का प्रतिपादन कैसे किया ? यदि यह सही है तो कर्मवाद विघटित हो जाता है।
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