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४०२ : सम्बोधि
जो व्यक्ति संसार- दुःख से तप्त है और विषयों को विष के समान समझता है, उसे सरस भोजन के प्रति आसक्त नहीं रहना चाहिए ।"
रस- परित्याग का हेतु है - इन्द्रियों की उत्तेजना पर विजय प्राप्त करना, निद्रा-विजयी होना, और स्वाध्याय ध्यान में निराबाध प्रवृत्त रहना । आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है- " वह जैन शासन को नहीं जान सकता जो आहारविजयी, निद्रा-विजयी और आसन - विजयी नहीं है ।" इससे यह प्रतिफलित होता है कि निद्रा - विजय में रस - परित्याग की भी भूमिका है। रस-विजय से जितेन्द्रियता, तेजस्विता और निराबाध - संयम (साधना) की उपलब्धि में शंका नहीं रहती ।
रस शब्द से किन वस्तुओं का ग्रहण करना चाहिए, इसके सम्बन्ध में आचार्यों का अभिमत भिन्न-भिन्न है। गौरस, घी, दूध, दही, मक्खन, इक्षुरस, चीनी, गुड़, फल रस, धान्य रस, नमक आदि ये सब रस माने जाते हैं । प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वयं अध्ययन करना है कि उसके लिए क्या उपयोगी है? कितना उपयोगी है ? अपने आत्म-निरीक्षण से क्रमशः यह बहुत स्पष्ट होता चला जाता है । हम उस सत्य की उपेक्षा न करें, हमारी इच्छा है, किन्तु शरीर अपनी अनुकूलता तथा प्रतिकूलता की सूचना स्पृष्टतया अभिघोषित कर देता है ।
रस वस्तुओं में नहीं है । किन्तु वस्तुएं रस का निमित्त बनती हैं, इसलिए रस को बाह्य तप में रखा है । साधना की पूर्व भूमिका में रस - विजय की उपेक्षा है । साधना की प्रखरता, उच्च भूमिका तथा सिद्धि के पश्चात् उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। जहां कामना -- वासना ही शान्त हो जाती है वहां फिर वस्तुओं का क्या महत्व रहता है ? वस्तुओं में जहां से रस अभिव्यक्त होता है, जीतना उसे है । जैसे बाहर रस है वैसे भीतर भी रस है । बुद्ध ने कहा - अमृत बरस रहा है | कबीर कहते हैं - 'इस गगन गुफा में अजर झरै," क्या यह बाहर दिखाई दे रहा है ? यह किसी दूसरी दुनियां की झलक है । वह सबसे भीतर है । उसे पाना है । उसके सामने पदार्थों के रस स्वतः तुच्छ हो जाते हैं। गीता में कहा है-'रसवर्जं रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते' - परम तत्व के दर्शन का रसास्वादन कर लेने के बाद अन्य रसों से साधक निवृत्त हो जाता है ।
रस - विजय के लिए रस के केन्द्र पर ध्यान देना चाहिए । इन्द्रियां सिर्फ सम्वाद सम्प्रेषण करती हैं । वे संवाद मस्तिष्क में पहुंचते हैं। मस्तिष्क का सम्बन्ध किसी अन्य से है । फिर उनमें प्रियता और अप्रियता का भाव प्रकट होता है | जैसा है वैसा जान लेना, प्रिय में राग नहीं करना और अप्रिय से घृणा नहीं करना, सिर्फ शान्त होकर देखते रहना, जो-जो तरंगें उठती हैं, उनके उठने और गिरने को बस, देखना है । मन का योग विषयों से नहीं जोड़ना है, किन्तु उसे देखने वाले (द्रष्टा ) के साथ जोड़ना है । द्रष्टा की घनीभूत अवस्था में रसों की अनुभूति का महत्त्व नहीं रहता ।
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