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१५८ : सम्बोधि
मिथ्यात्व
अतत्त्वे तत्त्वसंज्ञानममोक्षे मोक्षधीस्तथा । अधर्म धर्मसंज्ञानं, मिथ्यात्वं द्विविधञ्च तत् ॥८॥
८. अतत्त्व में तत्त्व का संज्ञान करना, अमोक्ष में मोक्ष की बुद्धि करना और अधर्म में धर्म का संज्ञान करना मिथ्यात्व कहलाता है। "उसके दो प्रकार हैं-आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक ।
आभिग्रहिकमाख्यातमसत्तत्त्वे दुराग्रहः । अनाभिग्रहिकं वत्स ! अज्ञानाज्जायतेऽङ्गिनाम् ॥६॥
६. वत्स ! अयथार्थ तत्त्व में यथार्थता का दुराग्रह होना आभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है और जो यथार्थ तत्त्व का ज्ञान नहीं होता वह अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है !
एक चक्षुष्मान् वह होता है, जो रूप और संस्थान को ज्ञेयदृष्टि से देखता है। दूसरा चक्षुष्मान् वह होता है, जो वस्तु की ज्ञेय, हेय और उपादेय दशा को विपरीत दृष्टि से देखता है। तीसरा उसे अविपरीत दृष्टि से देखता है। पहला स्थूल-दर्शन है, दूसरा बहिर्दर्शन और तीसरा अन्तर्-दर्शन । स्थूल-दर्शन जगत् का व्यवहार है, केवल वस्तु की ज्ञेय दशा से सम्बन्धित है। अगले दोनों का आधार मुख्य रूप से वस्तु की हेय और उपादेय दशा है। अन्तर्-दर्शन जब मोह के पुद्गलों से ढंका होता है तब वह मिथ्यादर्शन कहलाता है। जब मोह का आवरण टूट जाता है तब सम्यक्त्व का लाभ होता है।
मिथ्यात्व का अभिव्यक्त रूप तत्त्व-श्रद्धा का विपर्यय है। विपरीत तत्त्वश्रद्धा के दस रूप बनते हैं :
१. अधर्म में धर्म संज्ञा। २. धर्म में अधर्म संज्ञा। ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा। ४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा। ५. अजीव में जीव संज्ञा। ६. जीव में अजीव संज्ञा। ७. असाधु में साधु संज्ञा।
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