Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 499
________________ ४३६ : सम्बोधि 'न साम्येन विना ध्यानं, न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्पं जायते तस्माद्, द्वयमन्योन्यकारणम् ॥' - 'समता के बिना ध्यान नहीं है और ध्यान के अभाव में समता नहीं है । दोनों स्थिरता का संपादन करते हैं, इसलिए वे एक-दूसरे से संयुक्त हैं ।' महावीर ने कहा है- "समया धम्ममुदाहरे मुणी - धर्म समता में है । आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं 'साम्यमेव परं ध्यानं, प्रणीतं विश्वदर्शिभिः । तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः ॥' -समता ही परम ध्यान है, तत्व- द्रष्टाओं ने ऐसा प्रणयन किया है। यह समस्त शास्त्रों का विस्तार उसी समता की अभिव्यक्ति के लिए है ऐसा मेरा विश्वास है । आगे कहते हैं - 'सूक्ष्म, स्थूल, चेतन और अचेतन पदार्थों पर क्षण-क्षण में राग या द्वेष करने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक कैसे हो सकता है ? 'आत्मा को समता से इस प्रकार भावित कर कि राग-द्वेष से वह किसी भी पदार्थ को ग्रहण न करे ।' बुद्ध के साथ आनन्द थे । मार्ग में प्यास लगी । बुद्ध ने कहा पानी लाओ । नदी दूर थी । आनन्द पानी लाने गये । अभी-अभी गाड़ियों के निकलने से पानी गंदला हो गया था, पीने जैसा नहीं था । वापिस लौटे और कहा - पानी गन्दा है । बुद्ध ने कहा- अब फिर जाओ, गन्दा हो तो थोड़ी देर रुक जाना । आनन्द गया । थोड़ी देर रुका। देखा, पानी बिल्कुल स्वच्छ है । गाड़ियों के निकलने से गन्दगी ऊपर आयी थी । पानी लेकर लोटा और कहा - आज आपने एक सूत्र दे दिया । मेरे चित्त की भी यही स्थिति है । विचारों की गाड़ियां निकलती रहती हैं। विचारों को शान्त करने से सत्य उपलब्ध हो जाता है । ध्यान साधक ध्यान और क्षमता के पारस्परिक गहन संबन्ध को विस्मृत न करे । ध्येय की पूर्ति में दोनों अभिन्न सहयोगी हैं। 1 ध्यान-योग्य आसन- - ध्यान की अपरिपक्व स्थिति में आसन और मुद्राओं का भी अपना महत्व है । वे चित्त की एकाग्रता का संपादन करने में सहयोगी हैं । इसलिए इनको सभी ने अपनाया है। ध्यान-सिद्धि के अनन्तर इनका कोई उपयोग नहीं रहता । फिर चाहे जैसी स्थिति में बैठे, सोये, खड़े रहे या चले । आसनों में ध्यान-योग्य आसन पद्मासन, सिद्धासन, वज्रासन आदि सामान्यतया प्रचलित रहे हैं । मुद्राओं में बायीं हथेली पर दायीं हथेली को गोद में रखना, तथा ज्ञानमुद्रा - अंगूठे और तर्जनी अंगुली के सिरों का स्पर्श, बाकी तीन अंगुलियां खुली, हाथ घुटनों पर रखना । आसन और मुद्रा का ध्येय यह रहा है कि साधना काल में जो ऊर्जा का प्रवाह प्रवाहित होता है, वह बाहर प्रवाहित न हो। वह शरीर की विशेष स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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