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अध्याय ६ . ११५
देवा दिवि भवन्त्येते, धर्म स्पृशन्ति ये जनाः।
अगारिणोऽनगारा वा, संयमस्तत्र कारणम् ॥१६॥ १५-१६, जो गृहस्थ या साधु धर्म की आराधना करते हैं, वे स्वर्ग में दीर्घायु, ऋद्धिमान्, समृद्ध, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्तिवाले और सूर्य के जैसी दीप्तिवाले देव होते हैं । उसका कारण संयम है।
संयम का मुख्य फल है-कर्म-निर्झरण, आत्म पवित्रता । उसका गौण फल है-देवलोक आदि की प्राप्ति।
संयम आत्म-जागरण है । उसके आत्म-गुणों का उपबृहण होता है। आत्मा के मूल गुण हैं-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र, सहज आनन्द आदि-- आदि । संयम इन सब की प्राप्ति का साधन है।
देवलोक आदि पौद्गलिक स्थितियों की प्राप्ति उसका सहचारी फल है। प्रस्तुत श्लोकों में उसी का प्रतिपादन है।
सर्वथा संवृतो भिक्षुर्द्वयोरन्यतरो भवेत्।
कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्तो, देवो वापि महद्धिकः ॥१७॥ १७, जो भिक्षु सर्वथा संवृत है-कर्म-आगमन के हेतुओं का निरोध किए है-वह इन दोनों में से किसी एक अवस्था को प्राप्त होता है-सब कर्मों का क्षय हो जाए तो वह मुक्त हो जाता है, अन्यथा समृद्धिशाली देव बनता है ।
__ कारण के बिना कार्य की उपलब्धि नहीं होती। परिदृश्यमान जगत् कार्य है तो निस्संदेह उसका अदृश्य कारण भी होना चाहिए। तृष्णा, वासना, या कर्म कारण है। कारण की परंपरा का निर्मलन करना साधना का वास्तविक ध्येय है। कर्म से प्रवृत्ति-चंचलता पैदा होती है और चंचलता से पुनः कर्म का सर्जन होता है । कर्म-प्रवृत्ति और प्रवृत्ति-कर्म का क्रम टूटता नहीं है। साधना उस क्रम को तोड़ने का शस्त्र है । साधक की साधना यदि प्रवृत्तिशून्यता की चरम सीमा का स्पर्श कर लेती है तो वह अयोगी. (प्रवृत्ति-मुक्त) सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है। यदि प्रवृत्ति का क्रम पूर्णतया निरुद्ध नहीं हुआ है तो पुनः जन्म लेना उसके लिए अनिवार्य है। किंतु इस बीच वह अपने असीम पुण्य-बल से एक बार
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