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पुरुषार्थ-बोध
मेघः प्राह
कष्टानि सहमानोपि, घोरं नैको विषीदति । एकस्तल्लेशतो दीनस्तत्त्ववित्तत्त्वमत्र किम् ॥१॥
१. मेघ बोला-एक व्यक्ति घोर कष्टों को सहन करता हुआ भी खिन्न नहीं होता और दूसरा व्यक्ति थोड़े से कष्ट में भी अधीर हो जाता है । हे तत्त्वज्ञ ! इसका क्या कारण है ?
भगवान् प्राह
कष्टं यो मन्यते स्पष्टं, परिणाम स्वकर्मणः । श्रद्धत्ते यो बिना भोगं, स्वकृतं नान्यथा भवेत् ॥२॥ स्व-कृतं नाम भोक्तव्य-मत्राऽमुत्र न संशयः । आयतिष्वपि कष्टेषु, इति जानन्न खिद्यते ॥३॥
२-३. भगवान् ने कहा- “जो व्यक्ति कष्ट को निश्चित रूप से अपने किए हुए कर्म का परिणाम मानता है और यह श्रद्धा रखता है कि किए हुए कर्म को भुगते बिना उससे मुक्ति नहीं मिल सकती
और जो यह निश्चित रूप से जानता है कि अपने किए हुए कर्म इस जन्म में या अगले जन्म में भुगतने ही पड़ते हैं, वह कष्टों के आ पड़ने पर भी खिन्न नहीं होता।
कष्टान्यामंत्रयेत् सोऽथ, कृत-शुद्धयं यथाबलम् । स्वकृतस्याऽप्रच्यवार्थ, मोक्षमार्गस्य संततम् ॥४॥
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