Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 488
________________ परिशिष्ट-१ : ४२५ उच्चारित ध्वनि आहत नाद है। आहत नाद का स्रोत तो अनाहत नाद ही है, जिसे मूल ध्वनि (Voice of the Silence) या आत्मनाद (SPIRITUAL SOUND) कह सकते हैं। धारणा, ध्यान, समाधि का साधन अनाहत नाद है, जिससे सारे रोग दूर हो जाते हैं। मंत्र-जप-जप और मन्त्र शब्दावलम्बी होने से दोनों में भिन्नता नहीं है। एक के साथ दूसरे का योग सहजतया जुड़ जाता है। जप के अनेक प्रकार हैं यथावाचिक-जो दूसरों को सुनाई दे । उपांशु-दूसरे को सुनाई न दे। मानसिक-जिस में होठ और जीभ का प्रयोग न कर, केवल मन से किया जाये। अजपाजप-जिसमें मन का भी प्रयोग नहीं; जो स्वतः सतत होता है, उसका अनुभव करना। महर्षि पतंजलि ने ईश्वर का वाचक 'प्रणव' 'ॐ' कहा है। 'ॐ' मूल शब्द ध्वनि है। इसी से समग्र शास्त्रों का प्रणयन हुआ है। उसका अर्थयुत चिन्तन करना जप है। क्रमशः उस 'ॐ' का शब्द जप छोड़कर उसके गुञ्जन को सुनना और अन्त में सहज जो 'ॐ' की सतत धारा प्रवाहित हो रही है उसमें अपने को विलीन कर देना, अनाहत सुनना। जप-विधि मंत्र शक्तिशाली होता है। किन्तु उसकी शक्ति का उद्घाटन सम्यक् आचरण के बिना सम्भव नहीं होता। प्रत्येक वस्तु का विधिवत् उपयोग किया जाता है, अन्यथा वह उसके लिए इष्ट कर नहीं होती। मन्त्रों की विधिवत् आराधना न करने से अनेक दुर्घटनाएं भी घटित हो जाती हैं और वे मन्त्र सहजतया सिद्ध भी नहीं होते। इसलिए आचार्यों ने मन्त्राराधना की कुछ विधियां प्रयुक्त की हैं। जप के लिए चार बातें आवश्यक हैं (१) जप (२) स्मरण (३) विचिन्तन (४) ध्यान।। जप-विधिपूर्वक मन्त्र का अभ्यास । इसके लिए निम्नोक्त चार तथ्य मननीय हैं (१) मन्त्र के अक्षरों का उच्चारण-एक अक्षर दूसरे अक्षर के साथ संलग्न होना चाहिए तथा बीजाक्षरों के उच्चारण में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत मात्राओं का ध्यान रखना चाहिए। (२) मन्त्र का उच्चारण जल्दी-जल्दी नहीं होना चाहिए। (३) एक अक्षर व दूसरे के बीच बिलम्ब नहीं होना चाहिए। (४) सुषुम्ना में जप करना चाहिए। सूरिमंत्रकल्पसंदोह के अनुसार जप-विधि इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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