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अध्याय ६ : १२३
इनसे बचकर 'स्वदारसंतोष व्रत अपना सकता है। वह अपनी परिणीता स्त्री में ही संतुष्ट रहता है तथा अब्रह्मचर्य की मर्यादा करता है । यह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है । अपरिग्रह अणुव्रत
गृहस्थ समस्त परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता किन्तु वह अपनी लालसा को सीमाबद्ध कर सकता है। यही अपरिग्रह अणुव्रत है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह सब कुछ छोड़कर संन्यासी बन जाए, किन्तु इसका प्रतिपाद्य इतना ही है कि वह अतिलालसा में फंसकर अपनी मर्यादाओं को न भूल बैठे। जिसमें लालसा की तीव्रता होती है, वह दोषों से आक्रान्त हो जाता है।
गुणवत
जो व्रत उपासक की बाह्य-चर्या को संयमित करते हैं, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है । वे तीन हैं : १. दिविरति-पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित कर
उसके बाहर न जाने का व्रत। २. उपभोग-परिभोग परिमाण-अपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं का परिमाण करना। ३. अनर्थदंड विरति-बिना प्रयोजन हिंसा करने का त्याग करना।
शिक्षाव्रत
जो व्रत अभ्यास-साध्य होते हैं और आन्तरिक पवित्रता बढ़ाते हैं, उन्हें शिक्षाव्रत कहा जाता है। वे चार हैं : १. सामायिक-जिससे पापमय प्रवृत्तियों से विरत होने का विकास होता है
उसे सामायिक व्रत कहते हैं। २. देशावकाशी-एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक हिंसा का परित्याग
करना। ३. पौषध-उपवासपूर्वक असत् प्रवृत्ति की विरति करना। ४. अतिथिसंविभाग--अपना विसर्जन कर पात्र को दान देना।
गुणव्रत और शिक्षावत के विवरण के लिए देखें-१४/३१-३७ ।
इस प्रकार पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों-बारह व्रतों को धारण करने वाला बारहवती श्रावक होता है।
जब वह व्रती की कक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है और संयम का उत्कर्ष तथा मन का निग्रह करने के लिए तत्पर होता है तब वह उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। प्रतिमाओं के विवरण के लिए देखें १४/४०-४२ ।
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