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१६० : सम्बोधि
अविरति और प्रमाद
आसक्तिश्च पदार्थेषु, व्यक्ताव्यक्ताऽवतात्मिका । अनुत्साहः स्वात्मरूपे, प्रमाद: कथितो मया ॥१०॥
१०. पदार्थों में जो व्यक्त या अव्यक्त आसक्ति होती है, वह 'अविरति' कहलाती है। अपने आत्म-विकास के प्रति जो अनुत्साह होता है उसे मैंने 'प्रमाद' कहा है।
अविरति का क्षेत्र जैसे व्यापक है वैसे प्रमाद का भी व्यापक है। आत्म-स्वभाव को अपुष्ट करने वाली प्रत्येक क्रिया का समावेश इसी में है। जब तक आत्मा की विस्मृति होती है और पर-पदार्थों की स्मृति होती है तब तक प्रमाद का हाथ बलवान् होता है। ___ संक्षेप में आत्म-विस्मृति प्रमाद है और आत्म-स्मृति अप्रमाद । जिस व्यक्ति को प्रत्येक क्रिया में अपनी आत्मा की स्मृति बनी रहती है, वह अप्रमाद की ओर बढ़ता जाता है।
भगवान् महावीर ने कहा है-'सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अपमत्तस्स पत्थि भयं'-जो प्रमत्त है उसे सर्वत्र भय ही भय है और जो अप्रमत्त है, वह भयमुक्त है। भय का मूल कारण प्रमाद है।
अन्यत्र एक स्थान में भगवान् महावीर ने प्रमाद को दुख का मूल माना है। एक बार श्रमणों को एकत्रित कर उन्होंने पूछा-आर्यो ! जीव किससे डरते हैं ? ___ गौतम आदि श्रमण निकट आए, वन्दना की, नमस्कार किया, विनम्र भाव से बोले--भगवन् ! हम नहीं जानते, इस प्रश्न का क्या तात्पर्य है। देवानुप्रिय को कष्ट न हो तो भगवान् कहें। हम भगवान् के पास से यह जानने को उत्सुक हैं।
भगवान् बोले-आर्यों ! जीव दुःख से डरते हैं। गौतम ने पूछा-भगवन्, दुःख का कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ? भगवान् गौतम ! दुःख का कर्ता जीव और उसका कारण प्रमाद है। गौतम-भगवन् ! दुःख का अन्त-कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ? भगवान् गौतम ! दुःख का अन्त-कर्ता जीव और उसका कारण अप्रमाद है।
कषाय और योग
आत्मोत्तापकरा वृत्तिः, कषायः परिकीर्तितः । कायवाङ्मनसां कर्म, योगो भवति देहिनाम् ॥११॥
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