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३५६ : सम्बोधि
सपापं हृदयं यस्य, जिह्वा कटुकभाषिणी । उच्यते विषकुम्भः स, नूनं विषपिधानकः ॥४६॥
४६. जिस व्यक्ति का हृदय पाप-सहित है और जिसकी जिह्वा कटुभाषिणी है, वह विषकुम्भ है और विष के ढक्कन से ढका हुआ है ।
कुम्भ चार प्रकार के होते हैं :
१. मधुकुम्भ मधुढक्कन । २. मधुकुम्भ विषढक्कन । ३. विष कुम्भ मधुढक्कन । ४. विषकुम्भ विषढक्कन ।
इसी प्रकार मनुष्य चार प्रकार के होते हैं :
१. शुद्ध हृदय मधुरभाषी ।
२. अशुद्ध हृदय कटुभाषी ।
३. शुद्ध हृदय कटुभाषी ।
४. अशुद्ध हृदय मधुरभाषी ।
महावीर को 'सङ्गम' देवता ने छह महीने तक यन्त्रणाएं, ताड़नाएं और मारणान्तिक कष्ट दिये । महावीर मौन - शान्त सब सहते गये । अन्त में देवता थक गया । जब जाने लगा तब अपने असद् व्यवहार की क्षमा मांगी। महावीर ने कहा – तुमने अपना काम किया और मैंने अपना काम किया । असाधु असाधुता के सिवाय और क्या कर सकता है ? तथा साधु साधुता से अन्यथा व्यवहार नहीं कर सकता मुझे दुःख है कि मेरा जीवन विश्व कल्याण के कारण अपना पतन कर रहे हो ।
लिए है और तुम मेरे ही
बुद्ध एक गांव में आये । एक व्यक्ति बुद्ध पर क्रुद्ध था । वह आया और गालियां बकने लगा । बुद्ध सुनते रहे और हंसते रहे । क्रोध का उबाल इतना सघन हो गया कि वह उतने से ही शान्त नहीं रहा । उसने क्रोधावेश में बुद्ध के मुंह पर थूक दिया। मुंह पोंछ कर बुद्ध बोले- 'वत्स ! और कुछ कहना है ?' आनन्द गुस्से में आ गया। बुद्ध ने कहा- 'इसके पास शब्द नहीं रहे, तब थूक कर अपना क्रोध बाहर फेंक रहा है । तुम अपने को दंड मत दो।' वह व्यक्ति घर चला आया । क्रोध का नशा उतरा । रातभर अनुताप किया। हुआ । सिर रख दिया।
सुबह फिर चरणों में उपस्थित कहा- क्षमा करो ! बुद्ध ने कहा - 'किस बात की । मैं प्रेम ही करता हूं। चाहे कोई कुछ भी करे ! प्रेम के सिवा मेरे पास और कुछ है:
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ही नहीं ।'
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